Friday, December 24, 2010

नव जीवनपथ

  मै निकल पड़ा हूँ घर से  , सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
  जो मिले सफ़र में छूट गए,पर साथ चल रही उनकी याद

अन्यमयस्क सा चला जा रहा, गुजर रहा निर्जन वन से
मेरे  विषम विषाद सघन हो उठे,  गए सब निर्मम बन के

आकुल- अंतर अगर न होता,  मै कैसे  निरंतर चल पाता
    चिर- तृप्ति अगर हो अंतर्मन में,चलने का उत्प्रेरण खो जाता

  तृप्ति के स्वर्णिम घट दिखलाकर , मुझको  ना दो प्रलोभन 
  पल निमिष नियंत्रित आत्मबल से,सुखा डाले है अश्रु  कण

तमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
डगमग में गति भर देते   विश्वास  ह्रदय का अणु भर  भी
 
शत  शत काँटों में उलझकर,उत्तरीय हो गए  क्षत छिन्न
          कदम बढ़ रहे सतत , काल के कपाल पर  देखने को पदचिन्ह .



                               

Saturday, December 11, 2010

निज मन की व्यथा

अपने प्रिय को खोने का दारुण दुःख . भरे ह्रदय से श्रधांजलि .ये कविता पुष्प  उन्हें समर्पित .

नील निलय शरद का अतिसुन्दर
विधु  प्रगतिवान है अपने पथ पर
छलके ललाट से श्रम स्वेद कण
सांध्य मलय अठ्खेलित प्रतिक्षण

लेती नीरवता अनंत अंगड़ाई
कही दूर उस नभ  उपवन  में
उसकी स्मृति की सी गहराई
स्पंदित होती है इस   मन में

कहता व्यथित मन  से सोने को
आंखे आतुर  ,आंसू पिरोने को
थकी सो रही मेरी मौन व्यथा
क्यों तुझे सुनाऊ अपनी कथा 

नैराश्य गहन अवचेतन क्षण का
अतुल गुहा सी घन  तमस लपेटे
 अति दारुण दुःख का नीरव क्रंदन
 भरे दृग अश्रु की टकसाल समेटे

बंद दृगो में सपनो के चित्र बना जाता
खो मधुर स्मृति में, वेदनाये दुलराता
सजनी तुम कौन अपरिचित लोक गयी
निष्पलक लोचन में तिमिर लहराता







 

Tuesday, November 30, 2010

कवि - एक पथ प्रदर्शक

कविता के कुछ  भाव उठे , एक सजग दृष्टि जो डाली
सूखे शब्द हो उठे अलंकृत, चमक उठी स्याही की काली

सोचा मैंने जो सजग है , वो अग्रणी प्रगतिशील भी होंगे
घनेरे शब्दों के चितेरे . चैतन्य विचारो के झील भी होंगे

लिख सकते है प्रकृति और घनीभूत पीड़ा की गहराई को
सुन सकते है चाँद तारो की बाते ,सूंघ सकते हैअमराई को

छंदों में बांधे, भावो को, निश्छल प्रेम ग्रन्थ लिख जाते है
क्लिष्ट,सुरुचिपूर्ण,नूतन शब्दों के केशव भी मिल जाते है

मन हर्षित हुआ देखकर, देदीप्यमान लेखनी प्रवर शूरों को
बिखरे पड़े है नेपथ्य में भी , उत्सुकता से जरा घूरो तो

छलक रहा शब्दों से काव्यामृत,नवजीवन देता तरुणाई को
स्फूर्ति जगाते, नवचिंतन करते, बहा देते देशप्रेम पुरवाई को

शीश झुकाकर नमन करता हूँ, नवयुग के इन पथ प्रदर्शक को
"साहित्य समाज का दर्पण है" नमन इस सूक्ति प्रवर्तक को

















Monday, November 22, 2010

वो मशहूर हो गए है

आज सुबह सोचा था कि एक कविता लिखूंगा , लेकिन फिर समय कि कमी और मूड नहीं बन पाने के कारण मुझे निराशा ही हाथ लगी , फिर हलके फुल्के क्षण में लिखी हुई कुछ पंक्तिया याद आयी .मैंने सोचा आज वही आप लोगों से बाँट लूं . आप लोग पढ़ के हलके में लीजिये लेकिन हलकान मत होइएगा.




सुना है वो मशहूर हो गए है
जिन्दादिली से दूर,मगरूर हो गए है.
हर शख्स उनका कसूरवार .
वो खुद बेक़सूर हो गए है,
ये लाजिमी है की हर मशहूर
मसरूफियत के परदे में हो.
जाने कैसे ये दस्तूर हो गए है.

उनके माथे की हर सिलवट ,
बहुत कुछ बयां करती है.
उनसे दो मीठे बोल सुनने के
अरमान  चकनाचूर हो गए है.

फरमान उनका हाजिर है ,
कि हम गैर मकसद है
वो कलम  के पाबंद,
हम वक्त खोर   हो गए है.

खुदा बख्से उन्हें हर नेमत ,
जो उन्हें मसरूफ रखती हो.
 मुझे ऐसा क्यू लगने लगा
कि वो खब्ती पुरजोर हो गए है

उनको गुमां हो गया है
कि, वो अव्वल है सबसे
खुदा बख्से अक्ल उनको
हम तो यूही,बतखोर हो गए है .

Sunday, November 14, 2010

मेघ और मानव

बरस गए मेघ, रज कण में तृण  की पुलकावली भर
तुहिन कणों से उसके , अभिसिंचित हो उठे तरुवर
लिख कवित्त, विरुदावली गाते ,लेखनी श्रेष्ठ कविवर


पादप, विटपि, विरल विजन में, भीग रहे नख -सर
प्रेम सुधा को ले अंक में ,स्वनाम धन्य हो रहे सरोवर
कृतार्थ भाव मानती धरा,खग कुल -कुल  गाते  सस्वर


अलि गुंजत है अमलतास पर ,ढूंढ़ रहे सुमधुर पराग
आली निरखत है निज प्रिय को,भरे नयन अतुल अनुराग
प्रणयातुर विहग-कीट उल्लासित,अविचल  गाते प्रेम राग 


कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव , मेघो से कब सीखेंगे
ऊपर उठकर हम निज स्वार्थ से,युग बृक्ष को कब सीचेंगे
शत योजन आच्छादित  मेघो पर , कभी तो ये  मन रीझेंगे .

Tuesday, November 2, 2010

अस्तित्व की खोज

कल गोधुलि में, किसी ने मेरे ,अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया
क्षण भर को वितृष्णा जाग उठी , अकिंचन मन भी अकुलाया

दुर्भेद्य अँधेरे में भी, मन दर्पण , प्रतिबिंबित करता मेरी छाया
लाख जतन कोटि परिश्रम , पर अस्तित्व बिम्ब नजर न आया

विस्फारित नेत्रों से नीलभ नभ में , ढूंढ़ता अपने स्फुटन को
मार्तंड की रश्मि से पूछा , टटोला फिर निशा के विघटन को

क्या उसके कलुषित ह्रदय  का , ये  भी कोई ताना बाना है?
या उसके  कुटिल व्यक्तित्व का ,  कोई पीत पक्ष  अनजाना है 

उठा तर्जनी किसी तरफ , चरित्र हनन, हो गया शोशा है
हम निज कुंठा जनित स्वरों से , अंतर्मन को दे रहे  धोखा है

हम खोज  रहे अस्तित्व अपना , जैसे कस्तूरी ढूंढे  मृग राज
बिखर नहीं सकता ,कालखंड में , जिसकी त्वरित गति है आज






Sunday, October 17, 2010

नव दसकंधर

आज फिर लगायेंगे हम, दशानन के पुतले में अग्नि
नयन होगे हमारे पुलकित, सुनाई देगी शंख ध्वनि
सोच  खुश होगे, की नहीं वो ,अमर जैसे अम्बर और अवनि

उदभट विद्वता और  बाहुबल, छल कपट  और घमंड
पुलस्त्य कुल में जन्म लेकर भी  , जो बन गया  उदंड
श्रुति, वेद, ज्ञाता , परम पंडित, और  शिव भक्त प्रचंड


निज नाभि अमृत होकर भी, जो  अमरत्व न पा सका
राम अनुज को नीति बता ,भी  नीतिवान न कहला सका
धर्मज्ञ होकर भी पर स्त्री हरण , अधर्म है अपने को समझा न सका .


हर साल जलाया जाता वो , एक अक्षम्य अपराध  के खातिर
अब  रोज सीता हरण होता है ,अगण्य दसकंधर से गए हम घिर
मुखाग्नि उसको देता , मुख्य अतिथि बनके, नव रावण शातिर

वो कहता मुझ मरे हुए, के पुतले को जलाने से क्या पाओगे
जलाओ  जिन्दा रावण को , जिन्हें बहुतायत में तुम  पाओगे
नाभि अमृत का रहस्य ढूढो,असफल हुए तो शताब्दियों तक पछ्तावोगे .

Monday, October 4, 2010

नीड़ का निर्माण

नीड़ का  निर्माण दुष्कर ,मत हो तू हतप्राण
बाधा विविध ,तू एकला चल ,है झेलना तुझे कटु बाण


स्वेद से है  तेरे सुशोभित ,पुरुषार्थ की परिभाषा
पाषाण  उर से निकले है निर्झर,ऐसी हो अभिलाषा 


 अपने  अंतर्मन की नीरवता   को, मत करने दे कुठाराघात
 बन उत्कृष्ट तू ,छू ले व्योम ,हो निशा का अंत , आये  प्रभात 


 अवलम्ब बन तू नीड़ का , स्फूर्ति भर , तू गर्व कर
 गृह  के  सजने से पहले , तू बैठ नहीं सकता थक कर


कोई, उपल घात या . चंचला , नहीं झुका सकते तेरे मनोबल को
पथ खुला पड़ा है तेरा , दौड़ सरपट , कर धता बता तू छलबल को 


 कल जब सूरज निकलेगा  , नभ के अपनी प्रदक्षिणा   पर
 वो प्राण शक्ति लेगा  तुमसे , चंदा की किरने होगी  न्योछावर

 
 
 
  



 

 

























 




 

Friday, October 1, 2010

दबंग --अहम् ब्रम्हास्मि

 कही  दबंग, कही बाहुबलि , कही गैंगस्टर , कही खलीफा
आजकल वो सर्व प्रिय है , सरकार भी देती उनको वजीफा


 नवयौवन के उत्साह का  , वे  है सच्चे पथ  प्रदर्शक
 प्रखर  है उनकी जीवनचर्या,  है सम्मानित और आकर्षक


 वो हर जगह पूज्यमान  है , हो  झुमरी तलैया या फिर  रोम
 कुछ श्वेत  वस्त्र को करते सुशोभित , कुछ गाते   है हरिओम


तुम,  साम दाम दंड  भेद , के निपुण उपयोग कर्ता हो
हो कुबेर तुम, विश्वकर्मा भी , सफ़ेद पोशो के भर्ता हो


तुम अमर बेलि , तुम समदर्शी ,  तुम  हो चक्रवर्ती निष्कंटक
तुम ही तो हो प्रेरणा के स्रोत अपने, और राजयोग के भंजक


हे धवल वस्त्र धारक, जीवन संहारक, तुम ही  दिव्य आत्मा हो
हे  मानव कुल  श्रेष्ठ  ,स्वयं   ही  बताओ, कैसे  आपका खात्मा हो

Tuesday, September 28, 2010

सर्प और सोपान

जीवन का कटु  यथार्थ है , सांप सीढ़ी का खेल
त्रासदी है मानव जीवन की, इन संपोलो  से मेल
मनुष्य और सर्प के रिश्ते ,  है बो गए विष बेल

ना जाने कितने अश्वसेन, कितने विश्रुत  विषधर  भुजंग
बढ़ा रहे शोभा कुटिल ह्रदय की, जैसे वो  उनका हो निषंग
                                   ताक में रहता है वो , कब छिड़े  महाभारत जैसा कोई  प्रसंग

है जरुरत इस धरा को , जन्मेजय के पुनः अवतरण   का
पाने को, गरल से छुटकारा,है जरुरत अमिय के  वरण का
या फिर जरुरत है हमे , हम अनुसरण करे महान करण का

 अगर मानव हो  सतर्क , वो गरल वमन नहीं कर सकता है
लाख कोशिशे  , लाख जतन, प्रत्यंचा पर नहीं चढ़ सकता है
कर हन्त, कुटिल  विषदंत का , जीवन आगे बढ़ सकता है.


 यू तो सोपान भी है प्रतीक , मनुष्य के अभिमान का
 जो रह गए , उसे चिढाती,जो चढ़ गए ,उनके सम्मान का   
हे मानव  , सुधि लो, वक्त है सांप सीढ़ी के बलिदान का










Sunday, September 26, 2010

गेहूं बनाम गुलाब

बगिया में है खिल रहे , शुभ्र   धवल गुलाब
उर्ध्वाधर ग्रीवा,चन्द्रकिरण में नहाये हुए

भ्रमर गीत  गुनगुना रहे , मुदित मन रहा नाच
आती सोंधी सुगंध छन के  , है घनदल छाये हुए .

मधुकर का मिलन गीत ,  पिक की विरह तान
मंदिर की दिव्य वाणी   , मस्जिद की   अजान

कलियों की चंचल  चितवन , पुष्प  का मदन बान
लतिका का कोमल गात, देख रहा अम्बर विहान

कोयल की  मधुर कूक ,क्या क्षुधा हरण  कर सकती है ?
कर्णप्रिय  भ्रमर गीत , माली का  पोषण कर सकती है ?

सुमनों के सौरभ हार, सजा सकते है  पल्लव केश
बिखरा सकते है खुशबू, बन सकते है देवो का अभिषेक

पर क्या ये सजा सकते है , दीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
हमे जरुरत है किसकी ज्यादा , सोचिये गेंहू बनाम गुलाब?

Wednesday, September 22, 2010

मन का दीप

यू करो मन का दीप  प्रज्ज्लावित  ,  निर्मम तम , क्लांत ना कर पाए
आशा के तुम दीप जलाओ , दीखे प्रदीप , मन अशांत ना कर पाए

प्राण की बाती, स्वावलंबन की मशाल से , ह्रदय चीरते तम का
उच्छ्वास बने  पुण्य प्रकाश , हो ये द्रष्टान्त अपूर्व और  अनुपम सा

बनो मानवता के पथ प्रदर्शक , तिमिर चाहे कितना भी घनेरा हो
निज मन की दीप्ती से कह दो , ना चिराग तले कभी अँधेरा हो

हो कितना भी गहरा नैराश्य भाव  , जिजीविषा बिखर ना पाए
स्फुलिंग, इस विद्रूप जड़ता का , कही और प्रखर ना हो जाये

धरा का हर कण , प्रकाश पुंज , चिन्तनशील और देदीप्यमान हो
कर सके समूल नाश, तिमिर और तमस का, हम ऐसे प्रकाशवान हो

Sunday, September 19, 2010

कमनीय स्वप्न

कौन थी वो प्रेममयी , जो हवा के झोके     संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव  अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई 


 खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी  आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रीन्खल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण

मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर   पंखुड़ी  सरोज
क्यों विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने  को कोई अवरोध


कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर  दृग  कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
उसके , ललाट से  कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज


नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनकी , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
हम खो गए थे अपने अतीत में , आयी समीप पुनः मंजिल .

Friday, September 17, 2010

मै लिख नहीं सकता

मै लिख नहीं सकता, क्योकि मेरे ज्ञान चक्षु बंद है.
हा मै पंकज नहीं  हूँ, नहीं मेरी वाणी में मकरंद है.

अभिव्यक्ति , खोजती  है चतुर शब्दों का संबल
सक्रिय मस्तिस्क और  खुले दृग , प्रतिपल

दिवास्वप्न जैसा क्यों मुझे सब प्रतीत होता है.?
क्या हर लेखक का लिखने का अतीत होता है?

क्या मै संवेदनहीन हूँ या मेरी  आंखे बंद है
या नहीं जानता मै , क्या नज़्म क्या छंद है.

वेदना  को शब्द देना, पुलकित  मन का इठलाना.
सर्व विदित है शब्द- शर , क्यू मै रहा अनजाना

मानस सागर में  है उठता , जिन  भावो  का स्पंदन.
तिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन.