Saturday, June 23, 2012

.है ये कितनी श्यामलता

है ये कितनी श्यामलता ?
रजनी ये कैसी भोली है , है चन्द्र इसे नित
नित  छलता

रह रह छोड़ इसे शशि जाता
तनिक ना मन में छली लजाता
सहृदयता से रखे ना नाता

अति कुटिल चाल ये चलता
है ये कितनी श्यामलता ?

जब वह निर्मम रहे भवन में
छटा छिटकती इसके तन में
ज्योति जागती है जीवन में

रहती अतिशय है उज्ज्वलता
है ये कितनी श्यामलता ?

तारक-हार ना गए कही है
बिखर गए सब पड़े यही है
कुमुद -नयन भी खुले नहीं है

क्यों है इतनी विह्वलता ?
है ये कितनी श्यामलता ?

रजनि बनो अब तुम भी निष्ठुर
कठिन बनाओ निज कोमल उर
प्रेम पंथ है अतिशय दुस्तर

ग्रह योग कहाँ है मिलता ?
है ये कितनी श्यामलता ?




Tuesday, June 12, 2012

साधना

नव घन जल से भरकर
अंकों में चपल तरंगे
इस लघु सरिता के तन में
उमड़ी  है अमिट  तरंगे


निज प्रिय वारिधि दर्शन को
उन्माद उत्कंठा  मन में
बस एक यही आकांक्षा
है समां गई कण कण में

निज अखिल शक्ति भर गति में
वह त्वरित चली जाती है
कष्टों की करुण कहानी
क्या कभी  याद आती है ?


पथ की अति विस्तृतता का
भय तनिक ना विचलित करता
निज लघुता का चिंतन भी
मानस की शांति ना हरता


नहीं सोचती पथ में ही
यह मेरी लघुतम काया
निज अस्तित्व मिटा लेगी
बच सकती शेष ना छाया

जीवन से बढ़कर कुछ भी
यदि पा जाती वो आली
बलि कर देती दर्शन हित
वह भी सरिता मतवाली

Friday, June 1, 2012

सरस

ईश !  अब तो श्रांत  ये पद -प्रान्त है
लग्न से विजड़ित  बने  क्लम-क्लांत है
किन्तु करना पार , हे गिरी ! है तुझे
क्या करूँ ? कह दीर्घकाय , बता मुझे


भीम भारी रुक्ष कृष्ण कड़े कड़े
उपल तेरे अंक पर  अगणित पड़े
है कही प्राचीर सी तरु श्रेणियां
झाड़ियाँ है गुथी हुई  ज्यों वेणियाँ


ह्रदय तो तेरा है पय से भरा
आर्द्र शीतल है यहाँ की तो धरा
नील नीरज नेत्र- द्वय सरसा रहे
अलि सुगुन्जन श्रवण सुख बरसा रहे


नीर भर मंथर समीरण घूम कर

कमिलिनी के पार्श्व से आ झूमकर
श्रांति मेरी साथ में वो ले जा रहा
शक्ति नव इस अंग में यह ला रहा


बाह्य आकृति तो भयावह  गिरी अहो !
किन्तु अंतर है सरस कैसे कहो ?
धन्य है वो दृढव्रती  प्रण में अटल
नेत्र जिनके स्नेह से रहते सजल