ईश ! अब तो श्रांत ये पद -प्रान्त है
लग्न से विजड़ित बने क्लम-क्लांत है
किन्तु करना पार , हे गिरी ! है तुझे
क्या करूँ ? कह दीर्घकाय , बता मुझे
भीम भारी रुक्ष कृष्ण कड़े कड़े
उपल तेरे अंक पर अगणित पड़े
है कही प्राचीर सी तरु श्रेणियां
झाड़ियाँ है गुथी हुई ज्यों वेणियाँ
ह्रदय तो तेरा है पय से भरा
आर्द्र शीतल है यहाँ की तो धरा
नील नीरज नेत्र- द्वय सरसा रहे
अलि सुगुन्जन श्रवण सुख बरसा रहे
नीर भर मंथर समीरण घूम कर
कमिलिनी के पार्श्व से आ झूमकर
श्रांति मेरी साथ में वो ले जा रहा
शक्ति नव इस अंग में यह ला रहा
बाह्य आकृति तो भयावह गिरी अहो !
किन्तु अंतर है सरस कैसे कहो ?
धन्य है वो दृढव्रती प्रण में अटल
नेत्र जिनके स्नेह से रहते सजल
लग्न से विजड़ित बने क्लम-क्लांत है
किन्तु करना पार , हे गिरी ! है तुझे
क्या करूँ ? कह दीर्घकाय , बता मुझे
भीम भारी रुक्ष कृष्ण कड़े कड़े
उपल तेरे अंक पर अगणित पड़े
है कही प्राचीर सी तरु श्रेणियां
झाड़ियाँ है गुथी हुई ज्यों वेणियाँ
ह्रदय तो तेरा है पय से भरा
आर्द्र शीतल है यहाँ की तो धरा
नील नीरज नेत्र- द्वय सरसा रहे
अलि सुगुन्जन श्रवण सुख बरसा रहे
नीर भर मंथर समीरण घूम कर
कमिलिनी के पार्श्व से आ झूमकर
श्रांति मेरी साथ में वो ले जा रहा
शक्ति नव इस अंग में यह ला रहा
बाह्य आकृति तो भयावह गिरी अहो !
किन्तु अंतर है सरस कैसे कहो ?
धन्य है वो दृढव्रती प्रण में अटल
नेत्र जिनके स्नेह से रहते सजल
बहुत सुंदर आशीष जी.....
ReplyDeleteआपकी रचना पढ़ने के बाद ये यकीं करना मुश्किल हो जाता है कि आपको हमारा लिखा पढ़ने योग्य भी लगता होगा !!!
:-)
शायद कभी हम आप सा लिख सकें..........
(और आप हम सा :-))
अनु
सबकी अपनी-अपनी शिल्पगत विशेषता होती है। आपकी भी।
Deleteआप की भावप्रवणता बहा ले जाती है और कई बार मेरी ईर्ष्या का कारण भी बनती है .
Deleteआपकी कविता पढ़कर सहसा पंत जी का चित्र सामने आ जाता है। फिर भी शिल्प के प्रति अतिरिक्त सतर्कता और सजगता के चलते जहां कविता गरिष्ठ एवं अबोधगम्य हुई है वहीं भाव की अनुपम छटा कविता में जीवन की सुगंध, पेड़, पर्वत, समीर, पौराणिक पात्र, प्रकृति के रूप में प्रकट हुए हैं, उससे और ऐसा लग रहा है कि विचार इस रूप में हैं, जिनमें गुथी जीवन की कडि़यां कानों में स्वर लहरियों की तरह घुलने लगती है। जो चित्र हमारे सामने बना है वह अदम्य साहस और भविष्य को देखने वाली आंखों का है।
ReplyDeleteशिल्प, भाषा ज्ञानी लोग जाने :). हमें तो जो समझ आया वो यह कि पर्वत कितना ही जटिल, विकट क्यों न हो पार हो ही जायेगा.जब राही के पास दृष्टि भी हो और ज़ज्बा भी.
ReplyDeleteबरहाल हम तो ईर्ष्या करने के काबिल भी नहीं :) तो बस शुभकामनाएं.. पर्वत पार करने के लिए.
कर लें, ईर्ष्या। भाषा ज्ञानी को बुलाना पड़ेगा क्या?
Delete:)
ईश ! अब तो श्रांत ये पद -प्रान्त है
ReplyDeleteलग्न से विजड़ित बने क्लम-क्लांत है
आशीष जी आप के लिखने की तारीफ़ करना अब ज़रूरी नहीं लगता|सूरज को रोशनी दिखने जैसा लगता है ... हम तो मानकर ही हम चलते हैं की आप ने लिखा है तो कविता एक पूर्ण रूपेण कविता है ...!!जिसमे कोई कमी है ही नहीं ...!!बस प्रथम दो पंक्तियों का थोड़ा अर्थ समझ नहीं रहा है ...!आपकी कविता बिना समझे छोड़ भी नहीं सकते |वैसे एक निवेदन करेंगे ...कठिन शब्दों के अर्थ दे दें |
पाठकों को समझने में आसानी होगी|
लिखे बिना फिर भी मन नहीं मानता ..
आज की कविता सकारात्मक ओज से भरी है |बहुत सुन्दर भाव हैं |
आपकी लेखनी निरंतर ऐसे ही चलती रहे ...शुभकामनाएं ...!!
अनुपमा जी, आभार आपके मृदु वचनों के लिए..मै तो अभी अपने को एक प्रशिक्षु मानता हूँ. आपको कविता अच्छी लगी इसके लिए आपका कोटिशः आभार .
Deleteलग्न -----आसक्ति
विजड़ित--स्थिर
क्लम --थके हुए
aabhar ab aashay spasht hua ...!!
Deleteये हुई न बात आशीष जी। यही हम भी कहते हैं कि आप शब्दों के अर्थ भी दे दिया कीजिए। इससे ज़्यादा ग्राह्य हो जाती है रचना।
Deleteबहुत ही सुन्दर कविता, आपको पढ़ना एक अनुभव है..
ReplyDeleteनीर भर मंथर समीरण घूम कर
ReplyDeleteकमिलिनी के पार्श्व से आ झूमकर
श्रांति मेरी साथ में वो ले जा रहा
शक्ति नव इस अंग में यह ला रहा ...
Excellent creation...
.
धन्य है वो दृढव्रती प्रण में अटल
ReplyDeleteनेत्र जिनके स्नेह से रहते सजल
वाह!
बाह्य आकृति तो भयावह गिरी अहो !
ReplyDeleteकिन्तु अंतर है सरस कैसे कहो ?
धन्य है वो दृढव्रती प्रण में अटल
नेत्र जिनके स्नेह से रहते सजल
ये पंक्तिया छू गयी
अति सुंदर शब्द संयोजन.....
ReplyDeleteIs rachanakee jitnee tareef kee jaye utni kam hai!
ReplyDeleteमुझे तो एक बार में आपकी रचना समझ ही नहीं आती :-) आपकी इस उत्कृष्ट रचना को समझने के लिए शायद मुझे आपकी पोस्ट पर दुबारा आना होगा मगर हाँ फिलहाल शिखा जी कि टिप्पणी के आधार पर समझने कि कोशिश कर रही हूँ। क्या करूँ मेरी हिन्दी कमजोर है :-)
ReplyDeleteनीर भर मंथर समीरण घूम कर
ReplyDeleteकमिलिनी के पार्श्व से आ झूमकर
श्रांति मेरी साथ में वो ले जा रहा
शक्ति नव इस अंग में यह ला रहा ...
बहुत ही सुन्दर ... गेयता .. और शब्दों का बेजोड मिश्रण ... ये शक्ति आपके हाथों में आपकी कलम में बनी रहे और हम ऐसे ही नए नए गीतों से आनंदित होते रहें ... ऐसी कामना है ...
वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDeleteह्रदय तो तेरा है पय से भरा
ReplyDeleteआर्द्र शीतल है यहाँ की तो धरा
नील नीरज नेत्र- द्वय सरसा रहे
अलि सुगुन्जन श्रवण सुख बरसा रहे
जीवन में न जाने कब कितने संघर्ष पर्वत की तरह दिखाई देते हैं ..... लेकिन आगे बढ़ाने वालों के लिए कोई बाधा बाधित नहीं कर पाती ... प्रकृति का सुन्दर वर्णन और एक सकारात्मक सोच से लिखी बहुत सुन्दर रचना .... उत्कृष्ट शिल्प ....
न. कोई टिप्पणी नहीं. इस तरह का लेखन, टिप्पणी का मोहताज भी नहीं.
ReplyDeleteअपने ही कहे शब्द को दुहराना चाहूंगी..मैं तृप्त होती हूँ..
ReplyDeleteआपकी भाषा बहुत क्लिष्ट है ...सच पूछिए तो सबकी प्रतिक्रिया पढ़कर ही हम उसका सार समझ पाए ....उसे दोबारा ..तिबारा पढ़ा ...तब समझ पाए ......वाकई बहुत ही खुबसूरत रचना है ......
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ReplyDeleteजड़ाऊ ज़ेवर की तरह ख़ूबसूरत शब्दों से बुनी कविता .....किन्तु अंतर है सरस कैसे कहो ? .....ये तो मैं भी जानना चाहती हूँ ... :)
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