Tuesday, November 30, 2010

कवि - एक पथ प्रदर्शक

कविता के कुछ  भाव उठे , एक सजग दृष्टि जो डाली
सूखे शब्द हो उठे अलंकृत, चमक उठी स्याही की काली

सोचा मैंने जो सजग है , वो अग्रणी प्रगतिशील भी होंगे
घनेरे शब्दों के चितेरे . चैतन्य विचारो के झील भी होंगे

लिख सकते है प्रकृति और घनीभूत पीड़ा की गहराई को
सुन सकते है चाँद तारो की बाते ,सूंघ सकते हैअमराई को

छंदों में बांधे, भावो को, निश्छल प्रेम ग्रन्थ लिख जाते है
क्लिष्ट,सुरुचिपूर्ण,नूतन शब्दों के केशव भी मिल जाते है

मन हर्षित हुआ देखकर, देदीप्यमान लेखनी प्रवर शूरों को
बिखरे पड़े है नेपथ्य में भी , उत्सुकता से जरा घूरो तो

छलक रहा शब्दों से काव्यामृत,नवजीवन देता तरुणाई को
स्फूर्ति जगाते, नवचिंतन करते, बहा देते देशप्रेम पुरवाई को

शीश झुकाकर नमन करता हूँ, नवयुग के इन पथ प्रदर्शक को
"साहित्य समाज का दर्पण है" नमन इस सूक्ति प्रवर्तक को

















Monday, November 22, 2010

वो मशहूर हो गए है

आज सुबह सोचा था कि एक कविता लिखूंगा , लेकिन फिर समय कि कमी और मूड नहीं बन पाने के कारण मुझे निराशा ही हाथ लगी , फिर हलके फुल्के क्षण में लिखी हुई कुछ पंक्तिया याद आयी .मैंने सोचा आज वही आप लोगों से बाँट लूं . आप लोग पढ़ के हलके में लीजिये लेकिन हलकान मत होइएगा.




सुना है वो मशहूर हो गए है
जिन्दादिली से दूर,मगरूर हो गए है.
हर शख्स उनका कसूरवार .
वो खुद बेक़सूर हो गए है,
ये लाजिमी है की हर मशहूर
मसरूफियत के परदे में हो.
जाने कैसे ये दस्तूर हो गए है.

उनके माथे की हर सिलवट ,
बहुत कुछ बयां करती है.
उनसे दो मीठे बोल सुनने के
अरमान  चकनाचूर हो गए है.

फरमान उनका हाजिर है ,
कि हम गैर मकसद है
वो कलम  के पाबंद,
हम वक्त खोर   हो गए है.

खुदा बख्से उन्हें हर नेमत ,
जो उन्हें मसरूफ रखती हो.
 मुझे ऐसा क्यू लगने लगा
कि वो खब्ती पुरजोर हो गए है

उनको गुमां हो गया है
कि, वो अव्वल है सबसे
खुदा बख्से अक्ल उनको
हम तो यूही,बतखोर हो गए है .

Sunday, November 14, 2010

मेघ और मानव

बरस गए मेघ, रज कण में तृण  की पुलकावली भर
तुहिन कणों से उसके , अभिसिंचित हो उठे तरुवर
लिख कवित्त, विरुदावली गाते ,लेखनी श्रेष्ठ कविवर


पादप, विटपि, विरल विजन में, भीग रहे नख -सर
प्रेम सुधा को ले अंक में ,स्वनाम धन्य हो रहे सरोवर
कृतार्थ भाव मानती धरा,खग कुल -कुल  गाते  सस्वर


अलि गुंजत है अमलतास पर ,ढूंढ़ रहे सुमधुर पराग
आली निरखत है निज प्रिय को,भरे नयन अतुल अनुराग
प्रणयातुर विहग-कीट उल्लासित,अविचल  गाते प्रेम राग 


कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव , मेघो से कब सीखेंगे
ऊपर उठकर हम निज स्वार्थ से,युग बृक्ष को कब सीचेंगे
शत योजन आच्छादित  मेघो पर , कभी तो ये  मन रीझेंगे .

Tuesday, November 2, 2010

अस्तित्व की खोज

कल गोधुलि में, किसी ने मेरे ,अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया
क्षण भर को वितृष्णा जाग उठी , अकिंचन मन भी अकुलाया

दुर्भेद्य अँधेरे में भी, मन दर्पण , प्रतिबिंबित करता मेरी छाया
लाख जतन कोटि परिश्रम , पर अस्तित्व बिम्ब नजर न आया

विस्फारित नेत्रों से नीलभ नभ में , ढूंढ़ता अपने स्फुटन को
मार्तंड की रश्मि से पूछा , टटोला फिर निशा के विघटन को

क्या उसके कलुषित ह्रदय  का , ये  भी कोई ताना बाना है?
या उसके  कुटिल व्यक्तित्व का ,  कोई पीत पक्ष  अनजाना है 

उठा तर्जनी किसी तरफ , चरित्र हनन, हो गया शोशा है
हम निज कुंठा जनित स्वरों से , अंतर्मन को दे रहे  धोखा है

हम खोज  रहे अस्तित्व अपना , जैसे कस्तूरी ढूंढे  मृग राज
बिखर नहीं सकता ,कालखंड में , जिसकी त्वरित गति है आज