Wednesday, August 21, 2013

सूरज की यात्रा

बधशाला के अलावा  बहुत दिनों से मेरे ब्लाग पर  और कुछ नहीं पोस्ट हुआ . परिवर्तन के तौर पर फेसबुक पर अपनी कोलकाता यात्रा के दौरान डाले गए इस अनुभव को ब्लॉग पर डालने के कई मित्रो के सुझाव के बाद हिम्मत पड़ी . तो नोश फरमाएं .


कोलकाता जाना है . अभी १० बजे जाने वाली हावड़ा राजधानी एक्सप्रेस ८ घंटे लेट बताई जा रही है . गनीमत है की घर बैठे इन्टरनेट से पता चल जाता है की ट्रेन कितनी लेट है और कहाँ है अभी, पहले जाने कितनी बार स्टेशन पर घंटों इंतजार करना पड़ा है ट्रेन का . १२ घंटे लेट चली है राजधानी एक्सप्रेस कानपुर से कोलकाता के लिए , गति देखकर कच्छप महाराज भी शरमा जाये . बाहर कोहरे की धुंध है और अंदर यात्रियों की उच्छ्वास की . ऐसे ही किसी वाहन की यात्रा करते समय किसी महापुरुष के दिमाग की उपज होगा ".नौ दिन चले ढाई कोस" वाला मुहावरा .

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. सामने वाली बर्थ पर एक भद्र महिला अपने २ पुत्रियों के साथ यात्रा कर रही है . बच्चियों की उम्र यही कोई ४-५ साल होगी . लंच के बाद महिला ने उनसे कहा ऊपर की बर्थ पर जाकर सोने के लिए .कैसे कहा इसकी एक बानगी देखिये . "बेटा नीनी यु वांट टू गो अपस्टेयार्स देन क्लाइंब फ्रॉम प्रापर प्लेस" बच्ची को प्रापर प्लेस मेरे कंधे दिखे और उसने झट डिमांड कर दी. ऊपर के बर्थ पर सोते हुए नीनी की बड़ी बहन ५ वर्षीय बड़ी बहन टिमटिम मासूमियत से "पटा ले मुझे मिस काल से " गाते हुए अचानक अपनी मम्मी को आवाज देती है "मम्मा नेचर इज कालिंग ". मै असमंजस में हूँ की कम्बल से मुंह ढक लूं या या प्रॉपर प्लेस यानि अपना कन्धा फिर से ऑफर करूँ..


 निनी और टिमटिम दोनों सो गई है और उनकी मम्मा सिडनी शेल्डन को बांच रही है . आंग्ल भाषा की किताबे लुभाती तो बहुत है और यात्रा में लेकर भी चलता हूँ ताकि पडोसी यात्री पर पढ़ा लिखा होने का एम्प्रेस्सन रहे लेकिन सिमित ज्ञान आड़े आता है और बस कुछ पन्ने पढ़कर तकिया के नीचे .ट्रेन विन्ध्याचल में खड़ी है . सामने विन्ध्य पर्वत श्रेणी पर हरीतिमा वेणियों की तरह गुंथी दिख रही है और वेणी याद आते ही मन बल्ले बल्ले करने लगता है जाने क्यूँ .  धुंध गहराने लगी है , विन्ध्य पर्वत श्रेणिया अब नजरों से ओझल हो चुकी है , भगवन मार्तंड छुप गए है मुगलसराय आने वाला है . निनी उठकर आँखे मीच रही है .उनकी मम्मा बिना पूछे बता रही है की उनके पति ओ एन जी सी के देहरादून मुख्यालय में कार्यरत है . पहली बार मेरी नजर उनकी हाथो की उंगुलियों पर गई जब निनी के लिए ग्वावा प्लेटफोर्म से लेकर मैंने उन्हें दिया .देखिये आपलोग अतिश्योक्ति मानना हो तो मान लीजियेगा . उनकी उंगुली में कई सारे सूरज चमक रहे थे . सूरज से आंख मिचोनी खेलने का ताब ज्यादा देर रह नहीं सका.


खिड़की से परदे हटाकर देखा तो अँधेरे के साम्राज्य में जुगनुओं की रौशनी और नितीश कुमार के राज्य में कही दूर दूर टिमटिमाती रौशनी दिखाई पड़ रही थी .कोच अटेंडेंट से पुछा की अगला स्टोपेज कौन सा है , उससे पहले की निनी की मम्मी बोल पड़ी "गया" . जाने मुझे क्यू ऐसा महसूस होता है की पथ प्रदर्शक हो या अगला स्टोपेज बताने वाला हमेशा आत्मविश्वास से लबरेज रहता है . सूरज वाली उंगुलियों के चेहरे पर वो दिखा एक मुस्कान के साथ .आत्मविश्वास वाली जी.
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गया से आगे निकल चुके है ., ट्रेन में कुछ बुद्ध धर्मावलम्बी अपने चोगेनुमा वस्त्र में चढ़े है. मंगोलियन लुक वाले है. शायद जापान से होगे. मगध राज्य , अशोक , बुद्ध और गया, स्वर्णिम इतिहास. भूख लग आई है . ट्रेन लेट होने से खाने में राशनिंग कर रहे है रेलवे वाले .टिमटिम और नीनी ने खाने के लिए शोर मचाना शुरू कर दिया है.. उनकी मम्मी ने अपने बैग से कुछ निकाला . नजर पड़ी तो जुबान गीली हो गई . कुछ लजीज व्यंजन दिख रहा था . जाने क्यू मुझे शिवानी की "सती"कहानी याद आई .उन्होंने शायद ताड़ लिया हो या मेरे चेहरे पर लिखा हो की मुझे भूख लग रही है. ऑफर मिल गया और मैंने लपक भी लिया। सूरज वाली उँगलियों की पाक कला में भी आत्मविश्वास झलक रहा था .

. कानपुर से कोलकाता की यात्रा को समाप्त हुए १७ घंटे होने वाले है लेकिन अभी भी हैंगओवर चल रहा है .रात्रि के भोजनापरांत निनी और टिमटिम खेलने के मोड में आ गयी और फिर उन्होंने प्रापर प्लेस के स्वयंभू मालिक यानि मुझे द्युत क्रीडा(ताश के पत्ते ) में शामिल होने को मजबूर किया . मै सोच रहा था की मनुष्य की हर यात्रा इतनी सुखद होती अगर उसके जीवन में कोहासा नहीं होता . १० बजने को थे , अटेंडेंट महोदय ने बताया की ट्रेन २ बजे के पास कोलकाता पहुचेगी. आँखों में नींद तो नहीं थी या शायद वो बंद नहीं होना चाहती थी लेकिन रात भर जागरण न करना पड़े , इस डर से सोते सूरज को शुभरात्रि बोलते हुए हम निद्रा की आगोश में चले गए .ये पता था की टिमटिम , निनी और उनकी मम्मा कोलकाता से पहले आसनसोल में उतर जायेंगे. भीनी भीनी यादे अब मेरी संपत्ति है .


Sunday, August 4, 2013

बधशाला -13

महापुरुष जो भी जब आया , जग को समझाने वाला 
निष्ठुर जग ने , उसे न जाने , किस किस विपदा में डाला
अपनी अपनी कह कर कितने , चले जायेंगे ! चले गए 
बनी रहेगी पागल दुनिया , बनी रहेगी ! बधशाला.


कपडे रंग डाले तो क्या है, दिल तो है तेरा काला
बैठ जनाने घाट जपे क्या , राम नाम की तू माला 
छोड़ चुका घर बार अरे ! , तो फिर कैसे चेला चेली 
हाय गंग के तीर खोल दी , राम नाम की बधशाला 


आग लगा दे जटा जूट में ,फेंक कमंडल मृग छाला
जीता जल जा ! कर्मवीर हो ,कर्मयोग में मतवाला
इससे बढ़कर तपोभूमि क्या , तुझे मिलेगी दुनिया में
खाक रमाले, रम जाएगी , रोम रोम में बधशाला .