कौन थी वो प्रेममयी , जो हवा के झोके संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई
खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रीन्खल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण
मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर पंखुड़ी सरोज
क्यों विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने को कोई अवरोध
कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर दृग कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
उसके , ललाट से कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज
नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनकी , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
हम खो गए थे अपने अतीत में , आयी समीप पुनः मंजिल .
ओह यह सब स्वप्न में था ....पढते पढते आँखों के सामने ऐसी कमनीय नारी कि तस्वीर उभर कर आ गयी ...कितना सुन्दर वर्णन किया है ...अद्भुत सौंदर्य वर्णन ...
ReplyDeleteउत्कृष्ट रचना :):)
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ReplyDeleteखुश हूँ ये जानकार की मंजिल आपके करीब है एक बार पुनः।
सुन्दर रचना
आभार।
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मैं क्या कहूँ मुझे समझ नहीं आ रहा.हिंदी इतने सुन्दर शब्द और एक साथ...कितना हसीं सपना है .और कितनी सुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteसचमुच उत्कृष्ट रचना.
आदरणीय संगीता जी .
ReplyDeleteआपके इस उत्साहवर्धन के लिए आभारी हूँ.
दिव्या जी
सपने तो सपने होते है .
शिखा जी
हम तो अभी प्रशिक्षु है , धन्यवाद उत्साहवर्धन के लिए.
सिर्फ साहित्य पढ़ा ही नहीं बल्कि गढ़ा भी है, लग रहा है की उच्चकोटि के कवि हो, श्रृंगार रस की छटा बिखेर कर साबित किया है की हम आ गए हैं. अब इससे आगे क्या कहूं?
ReplyDeleteचर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
ReplyDeleteकृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
इतना अच्छा लिखा है आपने की मैं कुछ कह ही नही पा रही हूँ
ReplyDeleteबहुत अच्छे शुभकामनाये
दीप्ति शर्मा
कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
ReplyDeleteदेखकर दृग कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज ..
उन्मुक्त प्रेम और श्रांगार से रची लाजवाब प्रस्तुति है .....
Lagta hai rati ka saundarya varnan kar rahe hain aap... behad sundar rachna...
ReplyDeleteअरे वाह
ReplyDeleteछायावाद फिर वापस आ रहा है
सौब्दयता ही संसार को बचा सकती है.
आनंद आ गया.
इस रचना को जितनी बार पढूं नया लगता है , स्मृति-पटल पर अंकित हो गया है. आभार
ReplyDeleteआशीष जी, श्रृंगार रस का इतना कोमल और पवित्र वर्णन ही होना चाहिये, ऐसा नहीं की मन वितृष्णा से भर जाये. अद्भुत कविता है. एक और कामायनी..
ReplyDeleteरेखा दी ने सच कहा...:)
ReplyDeleteश्रींगार रस की छटा बिखर बिखर कर आ रही है..!!