Sunday, September 19, 2010

कमनीय स्वप्न

कौन थी वो प्रेममयी , जो हवा के झोके     संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव  अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई 


 खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी  आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रीन्खल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण

मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर   पंखुड़ी  सरोज
क्यों विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने  को कोई अवरोध


कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर  दृग  कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
उसके , ललाट से  कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज


नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनकी , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
हम खो गए थे अपने अतीत में , आयी समीप पुनः मंजिल .

13 comments:

  1. ओह यह सब स्वप्न में था ....पढते पढते आँखों के सामने ऐसी कमनीय नारी कि तस्वीर उभर कर आ गयी ...कितना सुन्दर वर्णन किया है ...अद्भुत सौंदर्य वर्णन ...

    उत्कृष्ट रचना :):)

    ReplyDelete
  2. .

    खुश हूँ ये जानकार की मंजिल आपके करीब है एक बार पुनः।
    सुन्दर रचना
    आभार।

    .

    ReplyDelete
  3. मैं क्या कहूँ मुझे समझ नहीं आ रहा.हिंदी इतने सुन्दर शब्द और एक साथ...कितना हसीं सपना है .और कितनी सुन्दर प्रस्तुति.
    सचमुच उत्कृष्ट रचना.

    ReplyDelete
  4. आदरणीय संगीता जी .
    आपके इस उत्साहवर्धन के लिए आभारी हूँ.

    दिव्या जी
    सपने तो सपने होते है .

    शिखा जी
    हम तो अभी प्रशिक्षु है , धन्यवाद उत्साहवर्धन के लिए.

    ReplyDelete
  5. सिर्फ साहित्य पढ़ा ही नहीं बल्कि गढ़ा भी है, लग रहा है की उच्चकोटि के कवि हो, श्रृंगार रस की छटा बिखेर कर साबित किया है की हम आ गए हैं. अब इससे आगे क्या कहूं?

    ReplyDelete
  6. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 22 - 9 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
    कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया

    http://charchamanch.blogspot.com/

    ReplyDelete
  7. इतना अच्छा लिखा है आपने की मैं कुछ कह ही नही पा रही हूँ
    बहुत अच्छे शुभकामनाये

    दीप्ति शर्मा

    ReplyDelete
  8. कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
    देखकर दृग कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज ..

    उन्मुक्त प्रेम और श्रांगार से रची लाजवाब प्रस्तुति है .....

    ReplyDelete
  9. Lagta hai rati ka saundarya varnan kar rahe hain aap... behad sundar rachna...

    ReplyDelete
  10. अरे वाह
    छायावाद फिर वापस आ रहा है
    सौब्दयता ही संसार को बचा सकती है.
    आनंद आ गया.

    ReplyDelete
  11. इस रचना को जितनी बार पढूं नया लगता है , स्मृति-पटल पर अंकित हो गया है. आभार

    ReplyDelete
  12. आशीष जी, श्रृंगार रस का इतना कोमल और पवित्र वर्णन ही होना चाहिये, ऐसा नहीं की मन वितृष्णा से भर जाये. अद्भुत कविता है. एक और कामायनी..

    ReplyDelete
  13. रेखा दी ने सच कहा...:)
    श्रींगार रस की छटा बिखर बिखर कर आ रही है..!!

    ReplyDelete