मै निकल पड़ा हूँ घर से , सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जो मिले सफ़र में छूट गए,पर साथ चल रही उनकी याद
अन्यमयस्क सा चला जा रहा, गुजर रहा निर्जन वन से
मेरे विषम विषाद सघन हो उठे, गए सब निर्मम बन के
आकुल- अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता
चिर- तृप्ति अगर हो अंतर्मन में,चलने का उत्प्रेरण खो जाता
तृप्ति के स्वर्णिम घट दिखलाकर , मुझको ना दो प्रलोभन
पल निमिष नियंत्रित आत्मबल से,सुखा डाले है अश्रु कण
तमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
डगमग में गति भर देते विश्वास ह्रदय का अणु भर भी
जो मिले सफ़र में छूट गए,पर साथ चल रही उनकी याद
अन्यमयस्क सा चला जा रहा, गुजर रहा निर्जन वन से
मेरे विषम विषाद सघन हो उठे, गए सब निर्मम बन के
आकुल- अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता
चिर- तृप्ति अगर हो अंतर्मन में,चलने का उत्प्रेरण खो जाता
तृप्ति के स्वर्णिम घट दिखलाकर , मुझको ना दो प्रलोभन
पल निमिष नियंत्रित आत्मबल से,सुखा डाले है अश्रु कण
तमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
डगमग में गति भर देते विश्वास ह्रदय का अणु भर भी
शत शत काँटों में उलझकर,उत्तरीय हो गए क्षत छिन्न
कदम बढ़ रहे सतत , काल के कपाल पर देखने को पदचिन्ह .
कदम बढ़ रहे सतत , काल के कपाल पर देखने को पदचिन्ह .
आकुल-अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता,
ReplyDeleteचिर-तृप्ति अगर हो अंतर्मन में,चलने का उत्प्रेरण खो जाता।
अच्छी रचना , शब्दों और भावों का सुंदर समन्वय किया है आपने।
...शुभकामनाएं।
तृप्ति के स्वर्णिम घट दिखलाकर , मुझको ना दो प्रलोभन
ReplyDeleteपल निमिष नियंत्रित आत्मबल से,सुखा डाले है अश्रु कण
अहसासपूर्ण शब्दों और भावों की बेहतरीन बुनाई.जीवन की कशमकश को खूबसूरत हिंदी के शब्दों से समझाया आपने.
ये जिजीविषा बनी रहे
बेहतरीन अभिव्यक्ति.
अन्यमयस्क सा चला जा रहा, गुजर रहा निर्जन वन से
ReplyDeleteमेरे विषम विषाद सघन हो उठे, गए सब निर्मम बन के
मन कि गहन वेदना अभिव्यक्त हो रही है ..
तमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
डगमग में गति भर देते विश्वास ह्रदय का अणु भर भी
जीवन में यूँ ही स्वयं पर विश्वास बनाये रहो ...
बहुत खूबसूरती से अपने मन के भावों को चित्रित किया है ...सुन्दर शब्द चयन ...बेहतरीन अभिव्यक्ति ...शुभकामनायें
आगे बढ़ते जाना है,
ReplyDeleteलक्ष्य सतत ही पाना है।
जीवन इसी का नाम है। साथ में याद हो पर क़दम न रुके, बढता ही रहे। नव पथ पर, निरन्तर....
ReplyDeleteआकुल- अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता
ReplyDeleteचिर- तृप्ति अगर हो अंतर्मन में,चलने का उत्प्रेरण खो जाता
बहुत प्रेरक रचना. सुन्दर भावों को शब्दों की माला में बड़े करीने से पिरोया है..बहुत सुन्दर
मै निकल पड़ा हूँ घर से , सम्मुख चलता पथ का प्रमादजो मिले सफ़र में छूट गए,पर साथ चल रही उनकी याद ....
ReplyDeleteसुन्दर प्रेरणादायी रचना ,
आभार।
.
आकुल- अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता
ReplyDeleteचिर- तृप्ति अगर हो अंतर्मन में,चलने का उत्प्रेरण खो जाता
काव्यकला है आपके अन्दर .सुन्दर लिखा है
@महेंद्र जी. संगीता जी , शिखा जी , प्रवीण जी, मनोज जी, कैलाश जी, दिव्य अजी और कुसुमेश जी.
ReplyDeleteआप सबका बहुत आभार उत्साह वर्धन के लिए .
यह पंक्तियाँ बहुत सुन्दर लगीं:
ReplyDelete"आकुल-अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता,
चिर-तृप्ति अगर हो अंतर्मन में, चलने का उत्प्रेरण खो जाता"
आप बहुत क्लिष्ट हिंदी में लिखते हैं पर बहुत ही खूबसूरत लिखते हैं..
अब आता रहूँगा..
"एक लम्हां" पढने ज़रूर आएं ब्लॉग पर..
आभार
बहुत खूबसूरती से अपने मन के भावों को चित्रित किया है|आभार|
ReplyDeleteआपको एवं आपके परिवार को क्रिसमस की हार्दिक शुभकामनायें !
ReplyDeleteक्रिसमस की शांति उल्लास और मेलप्रेम के
ReplyDeleteआशीषमय उजास से
आलोकित हो जीवन की हर दिशा
क्रिसमस के आनंद से सुवासित हो
जीवन का हर पथ.
आपको सपरिवार क्रिसमस की ढेरों शुभ कामनाएं
सादर
डोरोथी
नाज़ुक भावनाओं की सुकोमल अभिव्यक्ति. बहुत-बहुत शुभकामनाएं .
ReplyDeleteBahut sundar kavita.. kahin padhi in panktiyo ki yaad dila gayi..
ReplyDeleteअभी कहां आरम बदा ये मूक निमंत्रण छलना है.. साथी मुझको मीलों चलना है.. साथी मुझको मीलों चलना है
bahot khoobsurat.
ReplyDeleteआपकी कविताए हमेशा मुझे छायावादी युग की याद कराती है
ReplyDeleteशब्द संयोजन और बिम्ब काबिल ए तारीफ है
आशीष भाई, आपकी रचना में एक अजब सा आकर्षण है। ऐसी अनोखी रचनाएं बहुत कम पढने को मिलती हैं।
ReplyDelete---------
अंधविश्वासी तथा मूर्ख में फर्क।
मासिक धर्म : एक कुदरती प्रक्रिया।
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 28 -12 -2010
ReplyDeleteको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
आकुल- अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता ...
ReplyDeleteअंतर की आकुलता ही सृजन की नींव है ...
वेदना , वेदना को पार पाने का सन्देश सब है इस प्रेरक रचना में ..
आभार !
तमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
ReplyDeleteडगमग में गति भर देते विश्वास ह्रदय का अणु भर भी
behad sunder.
कदम बढ़ रहे सतत , काल के कपाल पर देखने को पदचिन्ह .
ReplyDeleteबहुत सुंदर कृति-
शुभकामनाएं
सुन्दर रचना!
ReplyDeleteतमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
ReplyDeleteडगमग में गति भर देते विश्वास ह्रदय का अणु भर भी
आशा का उजास फ़ैलाती खूबसूरत प्रस्तुति.
सादर
डोरोथी.
ऐसी भाषा बहुत कम ही प्रयुक्त होती दीखती है आज हिन्दी ब्लोगिंग में..इसलिए रचना के भाव और शब्द सौन्दर्य ने आह्लादित कर दिया है...
ReplyDeleteआपकी लेखनी सदा उन्नत रहे,ऐसे ही रचती रहे ,यही शुभकामना है...
बहुत बहुत बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने ,जैसे मनोहारी भाव हैं,वैसे ही प्रवाह और शब्द योजना भी..
तमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
ReplyDeleteडगमग में गति भर देते विश्वास ह्रदय का अणु भर भी
हर शब्द में बहुत गहरी बात झलक रही है , इतने गहरे भावों कि अभिव्यक्ति के लिए आभार .
तमिस्रमय जीवन पथ पर , तम हरती एक लघु किरण भी
ReplyDeleteडगमग में गति भर देते विश्वास ह्रदय का अणु भर भी
लेखन गतिमान रहे...
आभार
नव वर्ष 2011
ReplyDeleteआपके एवं आपके परिवार के लिए
सुखकर, समृद्धिशाली एवं
मंगलकारी हो...
।।शुभकामनाएं।।
अनगिन आशीषों के आलोकवृ्त में
ReplyDeleteतय हो सफ़र इस नए बरस का
प्रभु के अनुग्रह के परिमल से
सुवासित हो हर पल जीवन का
मंगलमय कल्याणकारी नव वर्ष
करे आशीष वृ्ष्टि सुख समृद्धि
शांति उल्लास की
आप पर और आपके प्रियजनो पर.
आप को सपरिवार नव वर्ष २०११ की ढेरों शुभकामनाएं.
सादर,
डोरोथी.
शत शत काँटों में उलझकर,उत्तरीय हो गए क्षत छिन्न
ReplyDeleteकदम बढ़ रहे सतत , काल के कपाल पर देखने को पदचिन्ह .
बहुत खूब
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आपको नव वर्ष 2011 की हार्दिक शुभकामनायें
काव्य कला की सुंदर प्रस्तुति .....
ReplyDeleteशब्दों का अद्भुत संचय है आपके पास .....
बहुत सुन्दर कविता !
ReplyDeleteआशीष जी, आपको और आपके परिवार को नए साल कि बहुत बहुत शुभकामनायें ! ये साल आपके लिए आनंदमय और सुखदायी रहे !
http://urvija.parikalpnaa.com/2011/01/blog-post_03.html
ReplyDeleteaapki rachna hai
शत शत काँटों में उलझकर,उत्तरीय हो गए क्षत छिन्न
ReplyDeleteकदम बढ़ रहे सतत , काल के कपाल पर देखने को पदचिन्ह..
प्रेरणा देते शब्द ... लाजवाब अभिव्यक्ति है ....
आशीष जी ...आपको और आपके समस्त परिवार को नव वर्ष मंगलमय हो ...
२०१० की यादों को छांट छांट कर निकाला है आपने ....
ReplyDeleteमै निकल पड़ा हूँ घर से , सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
ReplyDeleteजो मिले सफ़र में छूट गए,पर साथ चल रही उनकी याद
सुंदर रचना....
अच्छे शब्दों के चयन के लिए बधाई ! बहुत सुंदर
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ ऐसा महसूस हुआ कि तालाब के किनारे किसी वट वृक्ष की छाँव पर बैठा हूँ सुंदर आकृति के शब्द फूलों से सजी फुलवारी के दर्शन कर रहा हूँ .
ReplyDeleteआशीष भाई, आज दुबारा आपकी रचना पढी, और कमेंट किये बिना न रह सका। सचमुच बहुत सुंदर हैं आपके भाव। हार्दिक बधाई।
ReplyDelete---------
मिल गया खुशियों का ठिकाना।
वैज्ञानिक पद्धति किसे कहते हैं?
आकुल-अंतर अगर न होता, मै कैसे निरंतर चल पाता,
ReplyDeleteचिर-तृप्ति अगर हो अंतर्मन में, चलने का उत्प्रेरण खो जाता
मै निकल पड़ा हूँ घर से , सम्मुख चलता पथ का प्रमाद
जो मिले सफ़र में छूट गए,पर साथ चल रही उनकी याद
शब्दों और भावों का सुंदर समन्वय. आपको और आपके समस्त परिवार को नव वर्ष मंगलमय हो