तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
गगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला
एकाकी मन में स्मृतियाँ
जग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघों के तम को चीर रही
मधुरतम स्मृति एक उज्ज्वल
गोरज, रजत भस्म सी दिखती,
बैठी तरुवर के दल पर
नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के सप्तम स्वर
चपला दिखलाती मेघ वर्ण
संग में गुरुतर गर्जन तर्जन
घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन
नभ गंगा की धवल फुहारें,
सिंचीत करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लावित होता ह्रदय मरुस्थल
गगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला
एकाकी मन में स्मृतियाँ
जग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघों के तम को चीर रही
मधुरतम स्मृति एक उज्ज्वल
गोरज, रजत भस्म सी दिखती,
बैठी तरुवर के दल पर
नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के सप्तम स्वर
चपला दिखलाती मेघ वर्ण
संग में गुरुतर गर्जन तर्जन
घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन
नभ गंगा की धवल फुहारें,
सिंचीत करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लावित होता ह्रदय मरुस्थल
एकाकी मन में स्मृतियाँ
ReplyDeleteजग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघो के तम को चीर रही
मधुरतम स्मृति एक उज्जवल
स्मृतियाँ हमेशा उज्ज्वल रहें ... बहुत सुन्दर भाव प्रवण रचना ...
चपला दिखलाती मेघ वर्ण
ReplyDeleteसंग में गुरुतर गर्जन तर्जन
घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन ...
Beautiful thoughts ingrained . Loving the positive thinking in it. kinda inspiring.
.
गज़ब का फ्लो है कविता में .सुन्दर शब्द और सकारात्मक भाव .
ReplyDeleteकुल मिलकर कम्प्लीट पैकेज कविता का.
नभ गंगा की धवल फुहारें,
ReplyDeleteसींचित करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल
sunder tana bana shabd aur soch -dono ka ....!!
bahut sunder rachna .badhai.
तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
ReplyDeleteगगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला
दुःख तो बीत गया
अब सुख की बारी है
मै भी आता हूँ
वाह ... बहुत खूब अनुपम प्रस्तुति ।
ReplyDeleteइस पद्य में आपकी मोहक शैली का ऐसा जबरदस्त आकर्षण है कि इसे पढ़ते वक्त रचनात्मक लेखन सा पाठ सुख मिला। आपकी काव्यकत्मकता निखार पर है। • इस कविता के द्वारा आपने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि आपकी रचनात्मकता मरुस्थल में भी सूखी नहीं है।
ReplyDeleteये तो तत्सम कविता हो गयी। वी आई पी कविता! जय हो टाइप!
ReplyDeleteलेकिन मनोज कुमार जी की टिप्पणी से असहमत कि आप मरुस्थल में बैठे हैं। आप तो कानपुर में हैं। यह तो देश के लगभग हृदयस्थल में है। :)
बहुत खूब. शुभकामनायें
ReplyDeleteसंध्या का सुंदर श्रृंगार किया है इस शब्दांजलि ने।..वाह!
ReplyDeleteएकाकी मन में स्मृतियाँ
ReplyDeleteजग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघो के तम को चीर रही
मधुरतम स्मृति एक उज्जवल ..
जीवन के अंधकार में ये स्मृतियाँ ही तो जीने का संबल बनती हैं..बहुत सुन्दर रचना ..
एकाकी मन में स्मृतियाँ
ReplyDeleteजग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघो के तम को चीर रही
मधुरतम स्मृति एक उज्जवल
bahut hi utkrisht
तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
ReplyDeleteगगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला
तपती दुपहरिया गुजर गई
अब तरुवर छाँव दे चले
नयनों से जो अश्रु ढले
अब सीपी के मोती बन चले
बहुत बहुत बधाई आपको ...
is khoobsurat rachnaa की bhi aur is मलय के आमोदित स्पर्श की bhi .....
bhut sunder sabd rachna hai...
ReplyDeleteनभ गंगा की धवल फुहारें,
ReplyDeleteसींचित करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल
सुंदर ...सम्मोहित करते भाव उकेरे हैं....उत्कृष्ट रचना
बढियां कविता है -चिड़ियों का कलरव पंचम स्वर होता है या सप्तम ?
ReplyDelete"नभ गंगा की धवल फुहारें,
ReplyDeleteसींचित करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल "
sundar bhav....!
sundar abhivyakti..!!
चपला दिखलाती मेघ वर्ण
ReplyDeleteसंग में गुरुतर गर्जन तर्जन
घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन
कविता की प्रत्येक पंक्ति में अत्यंत सुंदर भाव हैं....
हार्दिक बधाई...
आपकी इस रचना में तमाम व्याकरणिक त्रुटियाँ हैं. कृपया सुधार लें.
ReplyDeleteप्रतुल जी
ReplyDeleteधन्यवाद आपका , अब अगर मुझे पता होता की व्याकरण त्रुटि युक्त है कविता तो मै इसे ऐसे पोस्ट ही क्यों करता . कृपया त्रुटियाँ लिख दें तो आगे से उनको दूर करने की कोशिश होगी .
तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
ReplyDeleteगगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर, .......[शब्द 'उफनते' है जो यहाँ भी ठीक बैठता है]
दुःख मेरा तिरोहित हो चला.
एकाकी मन में स्मृतियाँ
जग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघो के तम को चीर रही ____ [मेघों... में अनुस्वार रह गया है]
मधुरतम स्मृति एक उज्जवल ____[जैसा की संगीता जी ने भी अपनी टिप्पणी में दिया है 'उज्ज्वल' शब्द में दो अर्ध 'ज्' ]
गोरज, रजत भस्म सी दिखती,
बैठी तरुवर के दल पर
नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के सप्तम स्वर ____[विहंगों में 'ह' पर अनुस्वार लगने से रह गया है]
चपला दिखलाती मेघ वर्ण
संग में गुरुतर गर्जन तर्जन
घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन
नभ गंगा की धवल फुहारें,
सींचित करती है उर स्थल ____['सिंचित' शब्द कर दें तो ही ठीक रहेगा.]
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल ____['हृदय' में ऋ की मात्रा आती है। मरु मे उ की मात्रा लगेगी न कि ऊ की।]
....... कठिन और तत्सम शब्दों के प्रयोग का अभ्यास करना अच्छा है लेकिन उससे भी अच्छा है उनका सही-सही प्रयोग, उनकी सही वर्तनी से पहचान करना.
शुक्रिया प्रतुल जी
ReplyDeleteतत्सम शब्दों के प्रयोग के प्रयास के साथ टंकड़ में त्रुटियाँ कम करने का प्रयास भी करूँगा . धन्यवाद आपका .
ashish ji
ReplyDeleteaaj to aap ki rachna padh kar man aanand may ho gaya .sibah -sibah hi itni sondar post jahir hai man kitna bhi avichlit hoga aapki kavita ko padh kar vah kisi ke bhi dil ko sakun pahunchayega .
aapke shabdo ka chayan hamesha se hi prabhavit karta raha hai .vaise bhi aap ek behatreen kavi hain ye baat to manani hi padegi.
kaise itne sundar shabdo ka chayan kar lete hain aap?
kya hindi se p.h.d. kiya hai aapne .
sach bahut bahut hi achhi post
dil se badhai
poonam
मन की आस बढ़ाती कविता।
ReplyDeleteकमाल है!! इस शैली की रचनायें अब कम ही मिलती हैं.
ReplyDeleteओह ...मुग्धकारी...
ReplyDeleteभाव और शब्द सौन्दर्य ने मन बाँध लिया...
अतिसुन्दर रचना....वाह..वाह..वाह...
गोरज, रजत भस्म सी दिखती,
ReplyDeleteबैठी तरुवर के दल पर
नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के सप्तम स्वर
अद्भुत! .... बढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
नभ गंगा की धवल फुहारें,
ReplyDeleteसींचित करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल ...
ग़ज़ब का ताना बना बुना है ... कविवर निराला की याद हो आई ....
"नभ गंगा की धवल फुहारें,
ReplyDeleteसींचित करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल "
पहली बार आपके ब्लॉग पर आया अच्छा लगा
बहुत खूबसूरती से पिरोया है भावों को ...
कृपया प्रतुल वशिष्ठ जी की बात माने कविता और भी सुन्दर बन जाएगी ....
बहुत बढ़िया प्रस्तुति|धन्यवाद|
ReplyDeleteअच्छी रचना है।
ReplyDeleteलिखते रहिए।
शुभकामनाएं।
भाई आशीष जी बहुत ही सुंदर शब्द सामर्थ्य से सुसज्जित कविता बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .शुभकामनाएं.
ReplyDeleteनभ गंगा की धवल फुहारें,
ReplyDeleteसींचित करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लवित होता ह्रदय मरूस्थल
वाह आशीष जी,खूब लिखा है.वाह.
shabdon ka sunder chayan, sunder bhaaw!!!!!
ReplyDeleteaap ki kavita prashad ki kavita se bhi achchhi lagi
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