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Wednesday, April 27, 2011

प्लावन

तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
 गगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला

एकाकी मन में स्मृतियाँ  
जग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघों के तम को चीर रही 
मधुरतम स्मृति एक  उज्ज्वल

 गोरज, रजत भस्म सी दिखती, 
 बैठी तरुवर  के दल पर
 नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के सप्तम स्वर

 चपला दिखलाती मेघ वर्ण
संग में गुरुतर गर्जन तर्जन
 घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन

नभ गंगा की धवल फुहारें,
सिंचीत  करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लावित होता ह्रदय मरुस्थल