Sunday, December 9, 2012

वधशाला --2

राजनीति और धर्मनीति भी , भेद -निति में सबसे आला
काल प्रबल के आगे सब कुछ , भूल गया वो मतवाला 
अतुलित बल योगेश अलौकिक , चक्र सुदर्शन धारी थे 
उसी कृष्ण की एक वधिक ने , वन में खोली बधशाला 



हुआ कलिंग विजय तब ही , जब लाखो का वध कर डाला 
रण स्थली को देख शोक में , था अशोक वह मतवाला 
यह अनर्थ हा ! यह अनर्थ क्या , एक जरा सी इच्छा थी '
पत्थर दिल को भी प्रियदर्शी ,कर देती है बधशाला



सबसे कहता फिरा जगत में , है तूफां आने वाला
मगर न माना सत्य किसी ने , समझा है भोला भाला
अरे वही मनु आदि पुरुष , तुम उसको नौवा या नूह कहो
बैठ नाव में देख चूका है , इस दुनिया की बधशाला





खिलजी ने चित्तोड़ मिटाने का, विचार ही कर डाला
पीना चाहे स्यार !सिंहनी , के हाथो ही से प्याला
जीते जी जल गई !सती के , नहीं धर्म को आंच लगी
वीर पद्मिनी के जौहर ने , खूब जगाई बधशाला



Tuesday, December 4, 2012

बधशाला

रातः ,संध्या, सूर्य ,चन्द्रमा, भूधर, सिन्धु ,नदी ,नाला
जल, थल, नभ क्या है ? न जानता वर्षा, आंधी, हिम ज्वाला 
विश्व नियंता कभी न देखा , पर इतना कह सकता हूँ 
जिसने विश्व रचा है उसने ,प्रथम बनाई बधशाला



कौन जानता है पल भर में , किसका क्या होने वाला 
राजतिलक की ख़ुशी मची थी,, रंग-भंग सब कर डाला 
दशरथ मरण राम वनवासी, सीता हरण भरत गृह त्याग
कुमति कैकयी के उर बैठी , घर में खोली बधशाला


कुषा पैर में चुभी तभी तो , उसका मूल मिटा डाला
ऐसा ही पागल होता है , सच्ची एक लगन वाला
स्वाभिमान का दिव्य देवता , कैसे निज अपमान सहे
महा हठी चाणक्य ने , खोली महानंद की बधशाला .


 तड़प रहा बेताब पलंग पर, हुआ प्रेम में मतवाला
आती होगी आज पिऊंगा, दिलबर से दिल भर प्याला 
उठा एकदम चिपट गया , तब काट  पैतरा काट  दिया 
सैरन्ध्री बन भीमबली ने , खोली कीचक  बधशाला 


दूर फेक दो तुलसी दल को . तोड़ो गंगा जल प्याला
दुआ फातिहा दान पुन्य का मरे नाम लेने वाला
मेरे मुंह में अरे डाल दो एक उसी सतलज की बूंद
जिसके तट पर बनी हुई है , भगत सिंह की बधशाला



Wednesday, October 17, 2012

ना कलंक बने



रवि रश्मि जनित गुरु ताप तपे
दुर्गम पथ पर चल अब श्रांत हुआ
मुख म्लान शिशिर -हत-पंकज सा 
तब कंठ तृषातुर क्लांत हुआ.





ज्योतिहीन  जीवन -जग में, 
कंटक -कुल -संकुल  मग में, 
भटक भटक पद छिन्न हुए, 
मुझ  से  मेरे  भिन्न हुए .




छल छल कर छलक रहा रस स्रोत
प्रतिक्षण नूतन स्वाद बहे
यह मोहक मानस पूर्ण पड़ा
रसपान करो पर याद रहे



तव धूल भरे पद पथिक ! नहीं
इस निर्मलता के अँक सने
बन पंक धूल इन चरणों की
इस मानस का ना कलंक बने .

Sunday, September 30, 2012

भाव के पात्र

उछ्ल  कर उच्च कभी सोल्लास
थिरक कर भर चांचल्य अपार
धीर सी  कभी ध्यान में मग्न
कुंठिता लज्जा सी साकार

मृदुल गुंजन सी गाती गान
बजाती कल कल  कर करताल
नृत्य बल खा खा करती, देख !
कभी भ्रू कुंचित कर कुछ भाल

वीचि -मालाओ में कर बद्ध
राशि के राशि अपरिमित भाव
पहुचती सरिता अचल समीप
चाहती अपना स्पर्श -प्रभाव

शैल से टक्कर खा खा किन्तु
बिखरती लहरें भाव समेत
ह्रदय के टुकड़े कर तत्काल
कठिन पीड़ा से बनी अचेत

नदी का सुनकर कातर नाद

ह्रदय पिघलते  और विकम्पित गात्र !
कोई जाकर सरिता को समझाए
उपल भी कही भाव के पात्र ?

Sunday, September 16, 2012

ब्लॉग्गिंग के दो साल -सम्हले या बेअसर हुए .

क्या जाने क्या हाल हुआ है, सम्हले या बेअसर हुये,
सहमे सहमे आये यहाँ पर, जीवन जीने पसर गये।

उपरोक्त  पंक्तियाँ  श्री प्रवीण पाण्डेय जी की   उदगार है जो उन्होंने मेरे ब्लॉग के एक वर्ष पूर्ण होने पर लिखे गए पोस्ट कर टिप्पणी के रूप प्रकट किया था..ये पंक्तियाँ  ब्लॉग जगत में किसी भी नवागंतुक के मनोभावों को परिभाषित करती है. सीमित ज्ञान .और  मुट्ठी भर शब्दों के सहारे अपने आप को अभिव्यक्त करना, शायद किसी भी  नवप्रवेशी (कम से कम मै) के सामने  एक चुनौती सदृश ही होगी . अभिव्यक्ति के इस  सहज और सरल  .मंच का ,विगत दो वर्षों से मै एक अदना सा  सदस्य हूँ , और आपने आप को भाग्यशाली मानता हूँ की विद्वजनो के संगत में रहने का अवसर मिला .

मै इश्वर का आभारी हूँ की उसने मुझे बचपन में साहित्य जगत की कुछ अप्रतिम विभूतियों के वात्सल्य पूर्ण स्पर्श और उनके आशीर्वाद के लिए चुना जो अभी भी इतने सालो बाद मेरे साथ बना हुआ है.बाल्यकाल में दिनकर जी की ओजस्वी वाणी में :"आग की भीख"  सुनना और महादेवी जी की वात्सल्य पूर्ण आमोद अभी भी मेरी मानस पटल पर अंकित है

अरे रे मै आप सबको क्या सुनाने लगा था , असली बात जो कहनी है वो ये कि आज हमारे ब्लॉग को अवतरित हुए पुरे दो वर्ष हो गए.. संयोग ये भी कि भगवान विश्वकर्मा के जन्मतिथि के साथ मेल खाता है अवतरण दिवस.जो मेरे जैसे विश्वकर्मा के अनुसरण करने वाले (अभियांत्रिकी ) के लिए अपार हर्ष का विषय है. विगत दो वर्षों कि इस छोटी सी यात्रा में विद्वजनो के आशीर्वचन भी मिले और कभी कंटक पथ से भी गुजरना पड़ा जो कि सामान्य सी ही बात है . मूलतः मै कविता लिखने कि कोशिश करता हूँ , मन के भावों को स्पष्ट और सटीक शब्द देने का प्रयास भी , जाने कितना सफल या असफल हुआ ये तो समय के गर्भ में है.


स्वान्तः सुखाय शुरू किया हुआ ये ब्लॉग लेखन कई अद्भुत मित्रो के सान्निध्य क़ा कारण भी बना जिनकी प्रशंसा और आलोचना मेरे अनियमित कवित्त लेखन को संजीवनी प्रदान करता रहता है . एक ख़ुशी और मिली इस ब्लॉग लेखन के माध्यम से , हमारे एक पारिवारिक मित्र है जो एक राष्ट्रिय टीवी चैनेल में सर्वोच्च पद पर है, उनकी नजर पड़ी मेरे ब्लॉग पर , और उन्होंने कहा कि मुझे  उनके चैनल द्वारा आयोजित एक कवि सम्मलेन में अपनी कुछ पंक्तियाँ पढनी है. मैंने उनसे विनम्रता पूर्वक इंकार कर दिया कि मै उस काबिल नहीं हूँ अभी . अब आत्मप्रशंसा तो हो नहीं सकती मुझसे काहे कि तुलसी बाबा कि पंक्तिया याद दिलाती रहती है

"आत्मप्रशंसा अनल सम, करतब कानन दाह"
 अंत में ब्लॉग जगत का शुक्रिया कि मुझ अकिंचन की लिखी पंक्तियों को अपनी गुणी नजरों से परखता है अपने टिपण्णी के माध्यम से.. उम्मीद है ये कारवां चलता रहेगा रुक -रुक के ही सही.. आपका सबका प्यार और प्रोत्साहन अभिभूत करता है , आप सबका ह्रदय से  आभार व्यक्त करता हूँ .

मानस सागर में उठता ,जिन भावो का स्पंदन.
तिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन
.








Friday, September 7, 2012

चकोरी भूली


विगत जुलाई के उत्तरार्ध से  ब्लाग लिखने और आप सबको  पढने से वंचित रहा . कारण स्व-जन का स्वास्थ्य कारण और फिर कुछ आलस भी है .कई दिनों से सोच रहा था की कल से लिखूंगा लेकिन आलसबस टालता रहा .  अनुपमा त्रिपाठी जी कुछ दिन से रोज पूछती थी , क्यों नहीं लिख रहे , एक दिन अनुलता जी ने भी संदेह  जाहिर किया कि क्या मैंने ब्लाग से मुँह मोड़ लिया आज शिवम् मिश्रा जी  ने भी यही प्रश्न किया और जोर दिया पोस्ट डालने कि  तो   . मैंने सोचा ज्यादा देर हो उससे पहले लिख डालूँ  नहीं तो    . क्या लिखूं आप लोग समझ गए होगें ना .:). तो हमने लिख ही दिया , अच्छा या बुरा वो नहीं पता .


नीले वितान के नभ में 

जलदो का जाल नहीं है 
चपला की प्रतिपल चंचल 
क्रीडा का काल नहीं है 

दिन के प्रकाश को संध्या 
ढँक अरुणांचल से अपने 
दे थपकी सुला रही है 
है लीन दृगो में सपने 

अति निमिड तिमिर ने धीरे 
निज कृष्ण प्रकृति के बल से 
अम्बर- प्रदेश में आकर 
अधिकार जमाया छल से 

पर उड्नायक ने तम का 
यह परख प्रपंच लिया है 
निज अनुचर दल संग आकर 
आवृत आकाश किया है 

निज धवल धाम से निशिपति 
गगनांगन शुभ्र बनाते 
लख तिमिर पलायन उडगण
हँस हँस कर मोद मनाते

वो भोली बाल चकोरी 
खो बैठी सुध बुध सारी
लख निज प्रिय शशलांछन की
शरद -सुन्दरता न्यारी 




पर हाय ! चकोरी भूली 
शशि ने भावुकता खोई 
है गह्वर चन्द्र- ह्रदय में 
ले गया चुरा चित्त कोई .

Thursday, July 19, 2012

सागरमाथा के देश में

अपनी व्यावसायिक  प्रतिबद्धता और पैर  में शनिचर होने के कारण ,मुझे ना जाने कितने घाटों और तटों  का पानी पीना पड़ता है . इस  यायावरी ने मुझे  भारतवर्ष के उत्तर में कश्मीर की हिम आच्छादित वादियों   से लेकर डेक्कन  में केरल के मनोरम तटों तक और पूर्वोत्तर के  अगम्य , दुर्गम स्थानों से लेकर पश्चिम में द्वारका तट तक  घुमाया है . कार्य के सिलसिले में देश -विदेश की यात्राये मेरे लिए अपरिहार्य सी हो गई है . हर महीने कही न कही , किसी दुसरे  स्थान का दाना पानी मेरे नाम लिखा होता है.   महापंडित सांकृत्यायन की   "अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा "बचपन से लेकर अब तक स्मृतियों में कैद है..

इतनी  भूमिका बाँधने के पीछे मेरा मंतव्य बस ये बताना था की बंदा घूमता तो रहता है लेकिन उसने कभी भी .अपने अनुभवों को कलमबद्ध करने की हिम्मत या जहमत नहीं उठाई .आज सुबह मैंने फेसबुक पर एक चित्र लगाया तो श्री मनोज कुमार जी, शिखा वार्ष्णेय जी और वंदना दुबे अवस्थी जी ने आग्रह किया कि   चित्र के बारे में विस्तार से बताने के लिए एक ठो पोस्ट डाला जाय. हमने सोचा, मौका तो  है और दस्तूर  भी  बन जायेगा बस एक बार कलम चले तो .



गर्मी का मौसम और पारा अर्धशतक लगाता हुआ , कुछ लोग कहते है की उत्तर भारत में चढ़ता  पारा वहाँ के लोगों की कार्यक्षमता पर प्रभाव डालता है , मै तो सहमत नहीं इनसे . खैर इस भीषण गर्मी से कुछ दिनों की निजात पाने के लिए हमने अपनी वामांगी से सलाह की तो उनकी इच्छा अनुसार पर्वतराज हिमालय की शरण में  जाने का निर्णय लिया गया.और तय पाया गया की हम नेपाल स्थित सागरमाथा (एवेरेस्ट ) की ऊँचाई भी देखेंगे
 कानपुर से सड़क मार्ग द्वारा  लखनऊ  एयरपोर्ट  पहुचे जहाँ से नेपाल की विमानन कंपनी बुद्ध एयर लाईन्स से हम लोगों को काठमांडू तक की यात्रा करनी थी . सुरक्षा जाँच के बाद बोर्डिंग के लिए जब एयर क्राफ्ट के पास पहुचे तो चालीस सीटर विमान देखकर श्रीमती जी के माथे पर चिंता की लकीरे दिखी.जो नेपाली विमान परिचारिका के स्वागत मुस्कान के साथ उड़न छू .हो गई.. लगभग ७५ मिनट की उडान के बाद हम काठमांडू के त्रिभुवन अंतरराष्ट्रीय हवाई पत्तन पर सुरक्षित उतर गए ,  तमाम सुरक्षा खामियों और ढांचा  गत कमियों के उपरांत भी , पर्यटकों के चेहरे पर शिकायत के भाव नहीं दिख रहे थे.. हमारे सहयोगी ने अपने चालक को  भेजा था  हमको हमारे होटल पहुचाने के लिए जो कि  काठमांडू के सबसे चहल पहल वाले इलाके दरबार मार्ग पर स्थित था . काठमांडू उपत्यका में रिमझिम फुहार हमारे दग्ध तन  को शीतलता की अनुभूति दे रही थी . कुछ मिनटों के आराम के बाद  हम एक रेस्त्रा में पहुचे जहाँ  मेरे मित्र और सहयोगी हमारा इंतजार कर रहे थे .. स्वादिष्ट भोजन के साथ नेपाल की राजनैतिक   और आर्थिक स्थिति पर भी सबने अपने अधकचरे ज्ञान को बघारा..  जाने क्यूँ  हमारे पुरखे कह गए है की खाते समय नहीं बोलना चहिये जबकि मुझे लगता है कि लोग खाने की मेज पर ज्यादा मुखर होते है.

. .                                                                                                                                                                                     





  •  
  • दुसरे दिन तडके ही हम भगवान पशुपतिनाथ के दर्शन के लिए गए जो की ज्योतिर्लिंगों में से एक है . भक्तों  की भारी भीड़ में भगवान शिव के प्रति अगाध श्रद्धा का संचार देखते ही बन रहा था. पंक्ति में खड़ा होते हुए कैमरा और अन्य समान वाहन में ही छोड़ना पड़ा था. ये मंदिर नेपाल राजतन्त्र के श्रद्धा का केंद्र रहा है और यहाँ के मुख्य पुजारी दक्षिण भारतीय ब्रह्मण ही होते है ,लिच्छवी नरेश द्वारा बनवाया हुआ ये मंदिर पगोडा स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है .. दर्शन और नाश्ता करने के उपरांत हमें काठमांडू की सैर करने की इच्छा से निकल पड़े . साफ सुथरी पहाड़ी सडक, अनुशासित ट्रैफिक हमको पैदल चलने में सहायक थे . दरबार मार्ग जहा मेरा होटल था वो राजपथ है नेपाल का . सड़क के एक छोर पर शाह राजवंश  का राजमहल "नारायणहिति" अपने भाग्य पर इतराता और दुर्भाग्य पर आंसू बहाता खड़ा है . कुछ साल पहले तक ये नेपाल की  सत्ता और जनता की  आस्था का केंद्र था .लेकिन उस अभूतपूर्व   नरसंहार के बाद जिसमे पुरे राजपरिवार की हत्या कर दी गई थी वो अवाक् सा रह गया था. वर्तमान में सरकार ने इसके एक हिस्से को संग्रहालय और एक हिस्से को विदेश मंत्रालय के  पासपोर्ट कार्यालय में परिवर्तित कर दिया  
  •   
                                                                                                     
  •  थोड़ी ही दूर पर एक बड़ा सा तालाब दिखा जिसके बीचो बीच में एक मंदिर . इस तालाब को रानी पोखरी के नाम से जानते है जो  राजरानियों की जलक्रीडा के लिए बनाया गया था . मजे की बात की अभी भी उसका जल साफ सुथरा दिख रहा था जबकि वो शायद अब प्रयोग में नहीं था . थोडा आगे बढे तो एक गगन चुम्बी टॉवर दिखा .काठमांडू की हृदयस्थली में स्थित ये बुर्ज "सुनधारा के नाम से जाना जाता हैऔर ये आधुनिक टीवी टावरों की तरह दिखता है . सबसे ऊपर जाने के लिए बुर्ज के अन्दर से सीढिया है . सबसे उपरी मंजिल को यहाँ के राजा , प्रजा को संबोधित करने के लिए प्रयोग करते थे . प्रचलित ये भी है की यहाँ से एक जल  धारा का उदगम था जिसका रंग सोने जैसा था इसलिए उसका नाम पड़ा सुन (स्वर्ण) धारा. वहा से चंद कदम की दुरी पर था नेपाल का सबसे बड़ा स्टेडियम" दशरथ रंगशाला " जो की  दक्षिण एशियाई खेलों  का भी मेजबान रह चुका है , अब तक हम थक चुके थे और क्षुधा भी सताने लगी थी, फिर हमने आज के अपने भ्रमण  को विश्राम दिया और लौट आये अपने होटल , जहा हमको सागरमाथा (एवेरेस्ट) जाने के लिए अगले दिन का प्लान बनाना था
  •  




  •  
  • . पुनश्च ---नेपाल की राजनैतिक  , सामाजिक और आर्थिक ताने बाने पर लिखना तो चाहता था लेकिन पोस्ट की लम्बाई बढ़ते देख और अपने नौसिखियेपन के संकोच के तहत मैंने इसे अगली पोस्ट तक मुल्तवी कर दिया .
  •  


Thursday, July 12, 2012

विश्व छला क्यों जाता ?

तारो से बाते करने
हँस तुहिन- बिंदु है आते
पर क्यों प्रभात बेला में
तारे नभ में छिप जाते ?

शशि  अपनी उज्जवलता से
जग उज्ज्वल करने आता
पर काले बादल का दल
क्यों उसको ढकने जाता ?

हँस इन्द्रधनुष अम्बर में
छवि राशि लुटाने आता
पर अपनी सुन्दरता खो
क्यों रो -रोकर मिट जाता

खिल उठते सुमन -सुमन जब
शोभा मय होता उपवन
पर तोड़ लिए जाते क्यों
खिल कर खोते क्यों जीवन ?

दीपक को प्यार जताने
प्रेमी पतंग है जाता
पर हँसते  हँसते उसको
क्यों अपने प्राण चढ़ाता ?

सहृदय जीव  ही आखिर क्यों
तन मन की बलि चढ़ाता
विश्वास शिराओं में गर बहता
फिर  विश्व छला क्यों  जाता ?











Tuesday, July 3, 2012

कौन सा तत्व ?

सुनो जी ! स्वप्न लोक में आज
दिखा मुझे सरोवर एक महान
देख था गगन रहा निज रूप
उसी में कर दर्पण का भान

नील थी स्वच्छ वारि की राशि
उदित था उस पार मिथुन मराल
पंख उन दोनों के स्वर्णाभ
कान्ति की किरणे रहे उछाल

यथा पावस -जलदो से मुक्त
नीला नभ -मंडल होवे शांत
अचानक प्रकटित हो कर साथ
दिखे युग शरद -शर्वरी -कान्त

हंस था खोज रहा आहार
तीव्रतम क्षुधा जनित था त्रास
किन्तु सुँदर सर मौक्तिक हीन
निरर्थक था सारा आयास

इसी क्रम में कुछ बीता काल
कंठ  गत हुए हंस के प्राण
अर्ध मृत प्रियतम दशा निहार
हंसिनी रोई प्रेम निधान

विलग वह विन्दु विन्दु नयनाम्बु
पतित होता था एक समान
रश्मि-रवि  की मिल कर तत्काल
बनाती उसको आभावान

हंस ने खोले मुकुलित नेत्र
दिखे उसको आंसू छविमान
खेलने लगा चंचु-पुट खोल
भ्रान्ति से उसको मुक्ता मान

हुआ नव जीवन का संचार
हुई सब विह्वलता भी दूर
निहित अलि ! कहो कौन सा तत्व ?
प्रेम की बूंदों में भरपूर



Saturday, June 23, 2012

.है ये कितनी श्यामलता

है ये कितनी श्यामलता ?
रजनी ये कैसी भोली है , है चन्द्र इसे नित
नित  छलता

रह रह छोड़ इसे शशि जाता
तनिक ना मन में छली लजाता
सहृदयता से रखे ना नाता

अति कुटिल चाल ये चलता
है ये कितनी श्यामलता ?

जब वह निर्मम रहे भवन में
छटा छिटकती इसके तन में
ज्योति जागती है जीवन में

रहती अतिशय है उज्ज्वलता
है ये कितनी श्यामलता ?

तारक-हार ना गए कही है
बिखर गए सब पड़े यही है
कुमुद -नयन भी खुले नहीं है

क्यों है इतनी विह्वलता ?
है ये कितनी श्यामलता ?

रजनि बनो अब तुम भी निष्ठुर
कठिन बनाओ निज कोमल उर
प्रेम पंथ है अतिशय दुस्तर

ग्रह योग कहाँ है मिलता ?
है ये कितनी श्यामलता ?




Tuesday, June 12, 2012

साधना

नव घन जल से भरकर
अंकों में चपल तरंगे
इस लघु सरिता के तन में
उमड़ी  है अमिट  तरंगे


निज प्रिय वारिधि दर्शन को
उन्माद उत्कंठा  मन में
बस एक यही आकांक्षा
है समां गई कण कण में

निज अखिल शक्ति भर गति में
वह त्वरित चली जाती है
कष्टों की करुण कहानी
क्या कभी  याद आती है ?


पथ की अति विस्तृतता का
भय तनिक ना विचलित करता
निज लघुता का चिंतन भी
मानस की शांति ना हरता


नहीं सोचती पथ में ही
यह मेरी लघुतम काया
निज अस्तित्व मिटा लेगी
बच सकती शेष ना छाया

जीवन से बढ़कर कुछ भी
यदि पा जाती वो आली
बलि कर देती दर्शन हित
वह भी सरिता मतवाली

Friday, June 1, 2012

सरस

ईश !  अब तो श्रांत  ये पद -प्रान्त है
लग्न से विजड़ित  बने  क्लम-क्लांत है
किन्तु करना पार , हे गिरी ! है तुझे
क्या करूँ ? कह दीर्घकाय , बता मुझे


भीम भारी रुक्ष कृष्ण कड़े कड़े
उपल तेरे अंक पर  अगणित पड़े
है कही प्राचीर सी तरु श्रेणियां
झाड़ियाँ है गुथी हुई  ज्यों वेणियाँ


ह्रदय तो तेरा है पय से भरा
आर्द्र शीतल है यहाँ की तो धरा
नील नीरज नेत्र- द्वय सरसा रहे
अलि सुगुन्जन श्रवण सुख बरसा रहे


नीर भर मंथर समीरण घूम कर

कमिलिनी के पार्श्व से आ झूमकर
श्रांति मेरी साथ में वो ले जा रहा
शक्ति नव इस अंग में यह ला रहा


बाह्य आकृति तो भयावह  गिरी अहो !
किन्तु अंतर है सरस कैसे कहो ?
धन्य है वो दृढव्रती  प्रण में अटल
नेत्र जिनके स्नेह से रहते सजल

Tuesday, May 22, 2012

मेघ और हम

बरस गए मेघ, रज कण में
तृण  की पुलकावली भर

तुहिन कणों से उसके ,
 अभिसिंचित हो उठे तरुवर

लिख कवित्त,विरुदावली गाते
लेखनी श्रेष्ठ कविवर





पादप, विटपि, विरल विजन में,
भीग रहे नख -सर

  पा प्रेम सुधा को  अंक में ,
स्वनाम धन्य हो रहे सरोवर

कृतार्थ भाव मानती धरा,
खग कुल -कुल  गाते  सस्वर





अलि गुंजत है अमलतास पर ,
ढूंढ़ रहे सुमधुर पराग

आली निरखत है निज प्रिय को,
भरे नयन अतुल अनुराग

प्रणयातुर विहग-कीट उल्लासित,
अविचल  गाते प्रेम राग 




कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव
 मेघो से कब सीखेंगे

ऊपर उठकर  निज स्वार्थ से
युग बृक्ष को कब सीचेंगे

शत योजन आच्छादित  मेघो पर
कभी तो ये  मन रीझेंगे .

Saturday, May 12, 2012

माँ

 माँ को याद करने का कोई एक दिन, ये हमारी संकृति का अंग नहीं है . हम तो अपनी माँ को प्रतिदिन, प्रतिक्षण याद करते है . पाश्चात्य जगत में भावनाओ के सामयिक क्षरण , अभिकेंद्रित होते परिवार में शायद माँ शब्द वर्ष में एक बार याद करने लायक हो गया है .. माँ , वात्सल्य  , त्याग ,और स्नेह का समुद्र है . मातृ देवो भव हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग है .इश्वर को भी सर्वप्रथम  त्वमेव माता ही कहा गया है . ये सच है की इस कालखंड में तमाम दुश्वारियों के बाद भी माँ का ममत्व अपनी संतान को पल्लवित होते हुए ही देखना चाहती है . ये सच है पूत कपूत सुने ,पर नहीं सुनी कुमाता


.माता के ओ आंसू कण
अमित वेदनाओ की माला
ह्रदय-चेतना -हारी हाला
अपमानो की विषम -ज्वाला
करती है जिनमे नर्तन
जो देखा माता के आंसू  कण

सोते प्राणों के आलय में
विस्मृत  गौरव -गान -निलय में
प्रतिपल होते  साहस-लय में
चुभ जाएँ तीखे शर बन
जो देखा माता के आंसू  कण


मुंदी हुई पलके खुल जाएँ
शौर्य-शक्ति हम में घुल जाएँ
मन में त्याग भाव तुल जाएँ
निज बलि दे पोंछे तत्क्षण
अपनी माता के आंसू  कण



Tuesday, May 1, 2012

बनिहारिन





iवो खेत में मसूर काटे
पैर में बिवाई फाटे
हंसिया ताबड़ तोड़ चलावे 
हथेली में पड़ गई गांठे 

करईल की खांटी  मिटटी 
जरत है अंगार नियर 
कपार से कुचैला सरकत 
मुँह झहाँ के हो गईल पीयर 

जांगर की प्रतिष्ठा में , जाने 
केतना  लेख लिखायल
सुरसती का स्वेद बोले 
घायल की गति जाने घायल

गुदड़ी में लिपटल  नौनिहाल
राइ क ठूंठ पर वितान तले 
घाम से खेले छुपन छुपाई
कीचराइल  आँख  में सपना  पले

श्रम  दिवस क आज खूब शोर बा
एकर खाली नाम सुनल है
सुरसती  पीड़ा में भिगल पोर-पोर बा
बनिहारिन त  नाम पडल है






कपार--सिर, नियर --जैसे , झहाँ --झुलस कर , जांगर --श्रम , राइ--सरसों की एक प्रजाति , घाम --धूप,  बनिहारिन -महिला श्रमिक





Friday, April 20, 2012

गेहूं बनाम गुलाब




खिल रहे है  बगिया में   ,
शुभ्र   धवल गुलाब
विटप गीत  गुनगुना रहे ,
मुदित मन रहा नाच

छन -छन  आती सोंधी सुगंध  ,
है घनदल छाये हुए .
कलियों की स्मित मुस्कान
चन्द्रकिरण में नहाये हुए

मधुकर का मधुर  मिलन गीत

पिक की विरह तान
मंदिर की दिव्य वाणी   ,
मस्जिद से आती है अजान

कलियों की चंचल  चितवन ,

मदन का पुष्प बान
लतिका का कोमल गात,
देख रहा अम्बर विहान

कोयल की  मधुर कूक ,

क्या क्षुधा हरण  कर सकती है ?
कर्णप्रिय  भ्रमर गीत ,
माली का  पोषण कर सकती है ?

सुमनों के सौरभ हार,

सजा सकते है  कुंचित  केश
बिखरा सकते है खुशबू,
बन सकते  देवो का अभिषेक

पर क्या ये सजा सकते है ,

दीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
क्षुधा शांत गेहूं ही करता,
फिर मन भाता है गुलाब

Wednesday, April 11, 2012

नाच उठा मयूर

आजकल दिल्ली प्रवास चल रहा है , कल शाम को अचानक काले  बादल आए  और पुरे शहर पर छा गए  . शाम को ५ बजे ही घनघोर अँधेरा . जैसे रात्रि के ८ बजे हो . कुछ पंक्तिया जेहन में आई तो मुलाहिजा फरमाएं .


नभ के प्रदेश में जलधर
फैलाते अपना आसन
अधिकार जमा क्रम -क्रम से
दृढ करते अपना शासन

आच्छादित  धीरे धीरे
है हुआ गगन अब सारा
लघुतम प्रदेश भी घन के
जालों से रहा ना न्यारा

अपने अति प्रिय जलदो को
लख अतुल समुन्नति धारी
है  मुग्ध   मयूरी -मानस
लें   हर्ष   हिलोरे   भारी

अंकों  में अन्तर्हित  कर
निज चपल चित्त -चावों को
यह  दर्शाती  नर्तन  से
अति अभिनन्दन -भावों को

हो भाग उस संमृद्धि में
ऐसी  भी चाह नहीं है
देखे केवल वैभव उनके
 इसके सुख की थाह नहीं है

 
 


Monday, April 2, 2012

सुनो ! मत छेड़ो सुख तान

मधुर  सौख्य के विशद भवन में
छिपा हुआ  अवसान

निर्झर के स्वच्छंद गान में,
छिपी हुई वह साध

जिसे व्यक्त करते ही उसको,
लग जाता अपराध
इस से ही  वह अविकल प्रतिपल
गाता दुःख के गान !   सुनो मत छेड़ो सुख तान

महा सिन्धु के तुमुल नाद में,

है भीषण उन्माद
जिसकी लहरों के कम्पन में,
है अतीत की याद
तड़प तड़प इससे  रह जाते
 उसके कोमल प्रान!  सुनो मत छेड़ो सुख तान


कोकिल के गानों पर ,
बंधन के है पहरेदार
कूक कूक कर केवल बसंत में ,
रह जाती मन मार
अपने गीत -कोष से
जग को देती दुःख का दान ! सुनो मत छेड़ो सुख तान

हम पर भी बंधन का पहरा
रहता है दिन रात
अभी ना आया है जीवन का
सुखमय स्वर्ण प्रभात
इसीलिए अपने गीतों में
रहता दुःख का भान! सुनो मत छेड़ो सुख तान







Wednesday, March 21, 2012

शाश्वत प्यार .

जब निदाध से तापित होता 
 धरनी  का उर अपरम्पार 
उमड़ घुमड़ कजरारे वारिद 
सिंचन करते शिशिर फुहार 

जब तम पट में मुँह ढक राका
रोती गिरा अश्रु निहार 
सुभग सुधाकर उसे हँसाता 
ललित  कलाएं सभी प्रसार 

सरोजनी का मृदुल बदन जब 
नत होता सह चिंता भार
दिनकर कर -स्पर्श से उसमे 
करता अमित मोद संचार 

सरिताओं  के जीवन पर जब 
करता तपन कठोर प्रहार
व्योम मार्ग से जलधि भेजता 
उन तक निज उर की रसधार 

कठिन पवन के झोंको से जब 
होता विकल मधुप सुकुमार 
कमल-कली झट उसे बचाती 
आवृत कर निज अन्तर्द्वार

हृदयहीन होने पर भी है
कितना सहृदय व्यापार 
प्रकृति सुंदरी सत्य  बता दे 
किससे पाया इतना प्यार ?

Wednesday, March 14, 2012

अस्तित्व की खोज


कल गोधुलि में, किसी ने मेरे ,अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया
क्षण भर को वितृष्णा जाग उठी , अकिंचन मन भी अकुलाया

दुर्भेद्य अँधेरे में भी, मन दर्पण , प्रतिबिंबित करता मेरी छाया
लाख जतन कोटि परिश्रम , पर अस्तित्व बिम्ब नजर न आया

विस्फारित नेत्रों से नीलभ नभ में , ढूंढ़ता अपने स्फुटन को
मार्तंड की रश्मि से पूछा , टटोला फिर निशा के विघटन को

क्या उसके कलुषित ह्रदय  का , ये  भी कोई ताना बाना है?
या उसके  कुटिल व्यक्तित्व का ,  कोई पीत पक्ष  अनजाना है 

उठा तर्जनी किसी तरफ , चरित्र हनन, हो गया शोशा है
हम निज कुंठा जनित स्वरों से , अंतर्मन को दे रहे  धोखा है

हम खोज  रहे अस्तित्व अपना , जैसे कस्तूरी ढूंढे  मृग राज
बिखर नहीं सकता ,कालखंड में , जिसकी त्वरित गति है आज

Friday, March 2, 2012

वंचिता

संध्या ने नभ के सर में 
अपनी अरुणाई घोली 
दिनकर पर अभिनव रोली 
बिखरे भर भर झोली 

रंगीन करों में उसके 
देख  रंगभरी पिचकारी 
पश्चिम के पट में छिपने 
भागे  सहस्र करधारी

धूमिल प्रकाश  में लख यह 
नभ-रंगभूमि की लीला 
नत -नयना नलिनी का मुख
मुरझाया हो कर पीला

तब आ कर अलि -बालाएं 
निज मृदु गुंजन गानों में 
प्रिय सजनी सरोजनी को 
है समझाती  कानों में 

सखी ! सहज कुटिल इस रवि की 
यह लीला नित ही होती 
अब कठिन बना निज मृदु उर 
क्यों अवनत -बदना   रोती 

Friday, February 10, 2012

मधु -उत्सव

कमनीय  -लता जो चढ़ी जा रही, 
मन मुदित हो रहा तरुवर है 
अमृत रस अब बरस रहा, 
पुलकित हो रहा सरवर है 

चारू -चन्द्र की चितवन, 
चित्त को चंचल  कर देती  
धवल चादिनी राते, 
सागर में कोलाहल  भर देती

दिग दिगंत  आमोद भरा 
मकरंद हुई हिम कणिका
सागर उन्मत्त कलोल भरा 
फेनिल फन चमके मणि सा 

मधुमास पल्लवित धरती पर , 
पीताम्बर तन पर डाले
किसलय कुसुम सुगन्धित मदिर 
अनंग प्रफुल्लित डाले गलबाहें 

धरनी के राग  वितान तने
आकांक्षा-तृप्ति की संगति को 
अभिनव क्रीडांगन है सजा धजा 
कौतुक-चेतना देता काम-रति को 


Friday, January 13, 2012

शिखा वार्ष्णेय रचित "स्मृतियों में रूस" और मेरी विहंगम दृष्टि

किताबे पढने का शौक जो बचपन से लगा अभी तक निर्विघ्न और अनवरत जारी है. सामने पुस्तक देखकर मेरी आँखों में उसे पढने की ललक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.. अपने बचपन के दिनों में मुझे हिंदी के कुछ मूर्धन्य  और देदीप्यमान साहित्यकारों को  सन्मुख देखने को  मिला.  मुझे कई साल बाद उनके बारे में  पता चला  क्योंकि उस उम्र में लेखक या साहित्यकार क्या होते है ,मुझे  नहीं पता था..   सूर.तुलसी की  भक्ति आन्दोलन काल से प्राम्भ होकर,  रीतिकालीन  बिहारी के काव्य का रसास्वादन और  आधुनिक हिंदी साहित्य की हर विधा की पुस्तक पढने का सौभाग्य मिला है .

विगत दिनों हमारे हिंदी ब्लॉग जगत की प्रतिभाशाली और  लोकप्रिय  लेखिका श्रीमती शिखा वार्ष्णेय जी द्वारा लिखित पुस्तक "स्मृतियों में रूस" पढने का सौभाग्य मिला .  इस  प्रस्तुति की समीक्षा लिखना तो मेरे वश की बात नहीं है पर हाँ एक पाठक की हैसियत से दो शब्द जरुर कहूँगा. लेखिका किसी परिचय की मोहताज तो नहीं है फिर भी रीति   तो निभानी  ही पड़ेगी . लेखिका का जन्म हिन्दुस्तान में हुआ और प्रारंभिक शिक्षा के बाद उन्होंने  .मास्को विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर की पदवी . स्वर्ण पदक के साथ अर्जित की. टीवी और प्रिंट मीडिया में काम  करने के बाद सम्प्रति लन्दन में स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्यरत है .

"स्मृति में रूस" यूँ   पुस्तक के नाम से ही अनुमान लगाया जा सकता है की इस  पुस्तक में लेखिका ने  अपने उच्च अध्ययन  के लिए पूर्व सोवियत संघ में अपने पंचवर्षीय  प्रवास के दौरान जिये गए क्षणों को  समेटा है. पुस्तक का  कवर पेज आकर्षक और नयनाभिराम है .जो पहले नजर में ही पढने के लिए न्योता देता है .

लेखिका का रूस पढने जाने की खबर सुनकर माँ की ममता और संतान से विछोह के  डर का सटीक चित्र उकेरा है .
"एक बार लड़की को विदेश भेजा तो फिर वही की होकर रह जाएगी "

                            किसी भी विद्यार्थी द्वारा अपने परिवार से दूर जाने की मनोस्थिति का चित्र भी देखिये .
"अब जब मेरा अचानक चयन हो गया था रूस जाने के लिए तो मै समझ नहीं पा रही थी की खुश होऊ या डरूं"

लेखिका ने उन सारी कठिनाइयों का वर्णन किया है जो की भाषा जनित है . रूस में आंग्ल भाषा का प्रचलित ना होना और लेखिका का  रूसी भाषा से अपरिचित होना , संवादहीनता के कारण तमाम दुश्वारियों का सामना करना पड़ा ..
मुझे परेशान देख वो लड़की ना जाने क्या पूछने लगी रूसी में और मै उसकी शक्ल देखकर बडबडाने लगी "रुस्की नियत ".

लेखिका  ने अपने   रूस प्रवास के सालों में वहा के  सामाजिक और आर्थिक ढांचे में परिवर्तन की सुगबुगाहट , रोजमर्रा की जरुरत की चीजे पाने की मशक्कत , वहाँ  बढती महगाई , मुद्रा स्फीति का बढ़ना और वहाँ की  मुद्रा रूबल का अवमूल्यन , जैसी घटनाओ  का रोचकता से वर्णन किया है .

"उस समय रूस में हर चीजों में राशनिंग थी . उन दिनों वहा पर चावल , नमक चीनी से लेकर सेनेटरी नेपकिन लेने के लिए घंटो तक लाइन में लगे रहना पड़ता था वो भी पता लग जाए की दुकान में समान आ गया हो "

रोचक अंदाज में  मास्को स्टेट विश्वविद्यालय में अपने प्रवेश के बारे में बताने के बाद ,अचानक एक गंभीर विषय पर लेखनी चली है .शीतकालीन  द्वि- ध्रुवी  विश्व में एक ध्रुव का केंद्र सोवियत संघ के  विघटन .के बाद की राजनैतिक हलचल , आर्थिक सुधारों की छटपटाहट, अपने देश से बेइंतहा प्यार करने वाले रूसियों का अचानक विदेश जाने की  मोह वृद्धि , विदेशी मुद्रा की कालाबाजारी , रोजगार का टोटा, इत्यादि विषयों पर गम्भीर चर्चा पढने को मिलता है .

इन विकट परिस्थितियों से जूझते एक रूसी दंपत्ति की भूख से बिलबिलाने की कारुणिक झलक पाठक के अन्तःस्थल को झकझोर जाता है
 "एक दिन रास्ते पर चलते हुए मैंने एक माँ और ४-६ साल की बच्ची को देखा . माँ ने एक केला ख़रीदा और आधा खाया फिर बच्ची को दिया की वाह भी खा ले .बच्ची ने खाया तो माँ ने उसके हाथ से चौथाई केला ले लिया की ये पापा के लिए है "



  पुस्तक में रूसी भाषा के मूर्धन्य लेखको जैसे गोर्की , टालस्टाय की चर्चा से लेकर रसियन भोज्य पदार्थो के बारे में विभिन्न परिप्रेक्ष्य में  रोचकता से परोसा गया है .रूस की स्थापत्य कला के विख्यात स्तम्भ क्रेमलिन से लेकर सेवेन सिस्टर्स के बारे में रोचक जानकारी . विभिन्न एतिहासिक स्थलों के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी और वहा के समाज में प्रचलित कथाएं भी संग्रहित  है .

.ज्यादा विस्तार में ना जाते हुए इतना कह सकता हूँ की संस्मरण विधा की इस रोचक पुस्तक में लेखिका के खट्टे मीठे अनुभवों के साथ मै डूबता उतराता  रहा ..  साहित्यिक आडंबर ना ओढ़े हुए ये  पुस्तक आम पाठक के लिए लिखी गई है वही खास वर्ग को भी  पढने के लिए आकर्षित करेगी ,ऐसा मेरा दावा है.
और अंत में
संस्मरण  विधा को रोचकता से प्रस्तुत करने के लिए लेखिका को हार्दिक बधाई .एवं साधुवाद

पुस्तक -- स्मृतियों में रूस 
लेखिका - शिखा वार्ष्णेय 
प्रकाशक - डायमंड पब्लिकेशन 
मूल्य  -- 300 /रूपये

 . .
या  यहाँ संपर्क करें --
Diamond Pocket Books (Pvt.) Ltd.
X-30, Okhla Industrial Area, Phase-II,
New Delhi-110020 , India
Ph. +91-11- 40716600, 41712100, 41712200
Fax.+91-11-41611866
Cell: +91-9810008004
Email: nk@dpb.in,