Tuesday, November 26, 2013

बधशाला -15

हिंसा से हिंसा बढती है , पीयो प्रेम रस का प्याला 
नफरत से नफरत को वश में , अरे कौन करने वाला 
"बापू" के हित अगर तुम्हारी , आँखों में कुछ आंसू है 
बंद करो लड़ाई,मत  खोलो , हिन्दू मुस्लिम बधशाला.



मंदिर तोड़ मुसलमां सहसा , बोल उठा अल्ला ताला
मस्जिद फूंक और हिन्दू का , बजा शंख घंटा आला 
जान न पाए दोनों पागल , उसके नाम अनेकों है ,
किया धर्म बदनाम खोल , रहमान राम की बधशाला.



नाच गया किसकी थापों पर , जिन्ना होकर मतवाला 
किसके सगे हुए ये गोरे, रहा हमेशा दिल काला
"क्रिप्स" लगाकर आग हिन्द में , सात समुन्दर पर गया 
बजा रहा था "चर्चिल" ट्रम्पेट , देख हमारी बधशाला

Monday, November 18, 2013

तत्व

तरल तरंगो सी क्षण क्षण नव
केलि कामनाएं करती

थिरक थिरक मेरे मानस में

अतुलित आन्दोलन भरती




वीचि वृन्द के चंचल उर में

उत्कंठा ने ले अवतार
चित्र विचित्र खीच दिखलाया
मणि मंडित आभरण अपार





उनसे उदगत दीप्त दीप्ति से

सज्जित सुन्दर उनके अंग
उस कल्पित आकर्षक छवि पर
मन में ऐसी उठी उमंग 





लड़ी जगत चिंता की टूटी 

कर देता सब कुछ निस्सार

उन्हें मिली वो मणियाँ सुन्दर

इसी अर्थ सारे व्यापार




नित नवीन श्रम जनित खेद से

खिन्न हुआ मै अति ही श्रांत

मुकुलित चर्म-चक्षु , उन्मीलित
मानस के लोचन अभ्रांत 





उनसे बाह्य जगत की मणियाँ

लज्जित थी पा गहरी हार

वो फूली नहीं समाई मन में
मिला देख सच्चा भंडार 





हंस कर मैंने निज जड़ता पर

हर्षित होकर खोई भ्रान्ति

सुलझ गई जीवन की उलझन
मेरी मिटी अपरिमित श्रांति .

Thursday, November 14, 2013

विश्व वैचित्र्य

कही अतुल जलभृत वरुणालय
गर्जन करे महान
कही एक जल कण भी दुर्लभ
भूमि बालू की खान

उन्नत उपल समूह समावृत
शैल श्रेणी एकत्र
शिला सकल से शून्य धान्यमय
विस्तृत भू अन्यत्र

एक भाग को दिनकर किरणे
रखती उज्जवल उग्र
अपर भाग को मधुर सुधाकर
रखता शांत समग्र

निराधार नभ में अनगिनती
लटके लोक विशाल
निश्चित गति फिर भी है उनकी
क्रम से सीमित काल

कारण सबके पंचभूत ही
भिन्न कार्य का रूप
एक जाति में ही भिन्नाकृति
मिलता नहीं स्वरुप

लेकर एक तुच्छ कीट से
मदोन्मत्त मातंग
नियमित एक नियम से सारे
दिखता कही न भंग

कैसी चतुर कलम से निकला
यह क्रीडामय चित्र
विश्वनियन्ता ! अहो बुद्धि से
परे विश्व वैचित्र्य.

Monday, November 11, 2013

स्वागत




ज्योतिहीन जीवन मग में 
कंटक कुल संकुल मग में 
भटक भटक पद छिन्न हुए 
मुझ से मेरे भिन्न हुए.


चुन तो लीं कलियाँ सुकुमार 
गुंथा हिममय सौरभ सार
अलियों कि गुन गुन गुंजार 
थी स्वागत गायन झंकार .


स्वर्ण घटित उन घड़ियों में 
रत्नो की फूलझड़ियों में 
तुम आयी जब मेरे द्वार 
मै दौड़ा लाने उपहार .


भूला ! मै तुम मेरी निधि हो 
फिर तव स्वागत किस विधि हो ?
करमाला या हो मनुहार 
करलो इनको ही स्वीकार .

Wednesday, November 6, 2013

क्या लिखुँ

क्या लिखूं ? जो गूढ़ हो .
ज्ञान पर आरूढ़ हो .
पुष्टि मांगती है मेधा
सिद्ध हो या मूढ़ हो .


क्या लिखूं ? जो छंद हो
सद चित हो, आनंद हो
मन पे ऐसा हो असर
ज्यों जीभ पर मकरंद हो ,


क्या लिखूं ? जो राग हो .
विराग हो ,अनुराग हो
कौन्तेय जैसा धर्मधारी
 कृष्ण सा बीतराग हो .


क्या लिखूं ? जो स्वस्ति हो .
हो भक्ति या , विरक्ति हो
प्रदक्षिणा हो ज्ञान की
नैराश्य , न आसक्ति हो .

.
 वह लिखूं जो सुविचार हो
सगुण और निर्विकार हो 
द्वेष दम्भ अतिरंजित न हो 
 हो  न्यून पर ओंकार हो .