Tuesday, June 21, 2011

असतो माँ सदगमय

 
कोई विषवमन करता है किसी की आड़ में
कोई लटका हुआ है, दुरभिसंधि के ताड़ में
किसने किसके पीठ में, नुकीला छुरा भोका
ना जाने कितने तिनके है, उनकी दाढ़ में


मुखालफत करने की भी, एक मियाद होती है
पानी अगर रुक जाए रूह में, तो दाद होती है
लिबलिबी सी सोच लेकर, वो सोच सकते क्या
इंसानियत सर पटकती है, औ फरियाद रोती है

मुँह  फुलाए गोलगप्पे में , कड़वा पानी का स्वाद
इर्ष्या की पराकाष्ठा भर देती है , नन्हे घाव में मवाद
बख्शी  है उनको खुदा ने, दिल की बेरुखी बेहिसाब
ठान ली कंटीले बेर ने , स्निग्ध केर को करना है बर्बाद


नव कंचन घट से जैसे ,छलकता हुआ हलाहल हो
अंतर्मन में कभी उनके, छिछला सा भी कोलाहल हो
मन में तीव्र धधकती , जुगुप्सा का बडवानल हो
युग से चलती आयी तृष्णा का , शायद कोई अस्ताचल हो


निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे  बोये
आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
लेकिन वो  अपना दीदा खोता  , जो अंधे के आगे रोये
"आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए

Tuesday, June 14, 2011

कमनीय स्वप्न


सम्मानीय दोस्तों , समयाभाव और व्यस्तता के कारण, अपने आप को अभिव्यक्त करने के लिए लिखी जाने वाली पंक्तिया नहीं लिख पा रहा हूँ . सोचा आप लोगों को अपनी एक पुरानी कविता झेलने के लिए फिर से पोस्ट कर दूं . आप में से कुछ लोगों ने ही पढ़ी होगी ये कविता .


कौन थी वो प्रेममयी ,जो हवा के झोके संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव  अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई 


खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी  आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रृंखल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण

मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर पंखुड़ी  सरोज
विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने को कोई अवरोध


कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर  दृग  कोर से , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
ललाट से उनके   कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज


 नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनके  , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
विस्मृत हुआ विषाद अतीत , आयी समीप पुनः मंजिल