Thursday, October 6, 2011

ओ दशकन्धर

आज फिर लगाया हमने, दशानन के पुतले में अग्नि 
नयन हुए हमारे पुलकित, सुनाई दी उच्च शंख ध्वनि 
खुश हुए, कि नहीं वो, अमर जैसे अम्बर और अवनि

उदभट विद्वता और  बाहुबल, छल कपट  और घमंड 
पुलस्त्य कुल में जन्म लेकर भी , जो बन गया  उदंड 
श्रुति, वेद, ज्ञाता, परम पंडित, और  शिव भक्त प्रचंड 


निज नाभि अमृत होकर भी, जो  अमरत्व न पा सका 
राम अनुज को नीति बता, भी  नीतिवान न कहला सका 
स्त्री-हरण अधर्म है, दशानन स्वयं को समझा न सका .


हर साल जलाया जाता, एक अक्षम्य अपराध  की खातिर 
रोज सीता हरण होता है, अगण्य दसकंधर से हम गए घिर 
मुखाग्नि उसको देता, बन मुख्य अतिथि, नव-रावण शातिर

कह रहा जलकर रावण, इस पुतले को जलाने से क्या पाया तुमने।
तुम्हारे समाज में जो हैं व्याप्त जिन्दा, उन्हें क्या जलाया तुमने? 
हर साल जलाते हो, इस बार भी बस वही रस्म निभाया तुमने।


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