Thursday, October 6, 2011

ओ दशकन्धर

आज फिर लगाया हमने, दशानन के पुतले में अग्नि 
नयन हुए हमारे पुलकित, सुनाई दी उच्च शंख ध्वनि 
खुश हुए, कि नहीं वो, अमर जैसे अम्बर और अवनि

उदभट विद्वता और  बाहुबल, छल कपट  और घमंड 
पुलस्त्य कुल में जन्म लेकर भी , जो बन गया  उदंड 
श्रुति, वेद, ज्ञाता, परम पंडित, और  शिव भक्त प्रचंड 


निज नाभि अमृत होकर भी, जो  अमरत्व न पा सका 
राम अनुज को नीति बता, भी  नीतिवान न कहला सका 
स्त्री-हरण अधर्म है, दशानन स्वयं को समझा न सका .


हर साल जलाया जाता, एक अक्षम्य अपराध  की खातिर 
रोज सीता हरण होता है, अगण्य दसकंधर से हम गए घिर 
मुखाग्नि उसको देता, बन मुख्य अतिथि, नव-रावण शातिर

कह रहा जलकर रावण, इस पुतले को जलाने से क्या पाया तुमने।
तुम्हारे समाज में जो हैं व्याप्त जिन्दा, उन्हें क्या जलाया तुमने? 
हर साल जलाते हो, इस बार भी बस वही रस्म निभाया तुमने।


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Friday, September 16, 2011

मै लिख़ नहीं सकता

आज १७ सितम्बर है जो  दो महत्वपूर्ण घटनाओ का साक्षी है . पहला तो भगवान विश्वकर्मा को समर्पित दिवस और दूसरा मेरे ब्लॉग का अवतरण दिवस . हा हा . कुछ ज्यादा हो गया तो माफ़ कर दीजियेगा . अंतर्जाल से परिचय तो पुराना है लेकिन  हिंदी ब्लॉग्गिंग  से  मेरे एक भूतपूर्व मित्र ने   परिचय कराया. हिंदी ब्लॉग जगत में आते जाते (जो  शुरुआत  में केवल एक- दो ब्लॉग तक सीमित था) रहे और पढने की उत्कंठा बढती गई..महीनो तक एक पाठक की हैसियत से मै साहित्य रस लेता रहा . इस बीच अंतर्जाल पर कुछ स्वनामधन्य ब्लोग्गरों से मिलने का मौका मिला जिसमे आदरणीया  संगीता स्वरुप जी , शिखा वार्ष्णेय जी , रेखा श्रीवास्तव् जी , दिव्या जी . प्रमुख रही . आप लोगों  द्वारा बार बार मिले प्रोत्साहन  ने मुझे अपना ब्लॉग बनाने को प्रेरित किया .डरते डरते मैंने अपनी पहली पोस्ट लिखी. एक साल की इस यात्रा में कई खट्टे मीठे अनुभवों से भी गुजरने का मौका मिला . इस अनवरत यात्रा में श्रीयुत अनूप शुक्ल जी , श्रीयुत  मनोज कुमार जी जैसे मूर्धन्य ब्लोगरों का प्रोत्साहन हमेशा प्रेरणाप्रद होता है मेरी कलम के लिए.  ब्लॉग जगत का शुक्रिया जो मुझ अकिंचन की लिखी पंक्तियों को अपनी गुणी नजरों से परखता है अपने टिपण्णी के माध्यम से. ज्यादा ना लिखते हुए मै अपनी उन पक्तियों को आप सबके नजर करना चाहूँगा जो मेरे मनोभावों  की दर्पण है . . .आपका सबका प्यार और प्रोत्साहन अभिभूत करता है .

मै लिख नहीं सकता, क्योकि मेरे ज्ञान चक्षु बंद है.
हाँ मै प्रखर  नहीं  हूँ, नहीं मेरी वाणी में मकरंद है.

अभिव्यक्ति , खोजती है, चतुर शब्दों का संबल
सक्रिय मष्तिष्क  और  खुले दृग , प्रतिपल

दिवास्वप्न जैसा क्यों मुझे सब प्रतीत होता है.?
क्या हर लेखक का लिखने का अतीत होता है?

क्या मै संवेदनहीन हूँ, या मेरी  आंखे बंद है
या नहीं जानता मै , क्या नज़्म क्या छंद है.

वेदना  को शब्द देना, पुलकित  मन का इठलाना.
सर्व विदित है शब्द- शर , क्यू मै रहा अनजाना

मानस सागर में  है उठता ,जिन भावो का स्पंदन.
तिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन.



Wednesday, August 10, 2011

पुनर्मिलन

बरस रहे  घन   मेघ ,
चपला चमके उनके उर में
नव नील कुञ्ज झूम रहे,
दादुर चातक गाते सुर में


रिमझिम अविरल अजर फुहारे,
मन में लालसा गोपन भरती
,नव कोपल उग आये अगणित,
दग्ध ह्रदयको  अभिसिचित करती


फूलों का उत्सव घर अनंग  के, 
मादकता है बरस रही
मदिरारुण आँखों से उनकी,
आकांक्षा -तृप्ति है झलक रही


अनंत  यौवन- मधु झरता ,
मधु-राका है उर्ध्वाधर  गामी
पुलकित,आंखे बंद किये ,
रूपरस पीता बन अलि का अनुगामी


कोमल लतिका सी बाँहों का ,
सुरभि लहरी सा शीतल आलिंगन
मदविह्वल कर देता ,
 मृदुल अँगुलियों का स्पर्श -अभिनन्दन


 अनंग के कोमल  पुष्प शरों से ,
विध रहा अकिंचन सा  ये तन
चिर तृष्णा बेचैन हुई ,
मतवाली माया का  अद्भुत सृष्टि मिलन














Tuesday, June 21, 2011

असतो माँ सदगमय

 
कोई विषवमन करता है किसी की आड़ में
कोई लटका हुआ है, दुरभिसंधि के ताड़ में
किसने किसके पीठ में, नुकीला छुरा भोका
ना जाने कितने तिनके है, उनकी दाढ़ में


मुखालफत करने की भी, एक मियाद होती है
पानी अगर रुक जाए रूह में, तो दाद होती है
लिबलिबी सी सोच लेकर, वो सोच सकते क्या
इंसानियत सर पटकती है, औ फरियाद रोती है

मुँह  फुलाए गोलगप्पे में , कड़वा पानी का स्वाद
इर्ष्या की पराकाष्ठा भर देती है , नन्हे घाव में मवाद
बख्शी  है उनको खुदा ने, दिल की बेरुखी बेहिसाब
ठान ली कंटीले बेर ने , स्निग्ध केर को करना है बर्बाद


नव कंचन घट से जैसे ,छलकता हुआ हलाहल हो
अंतर्मन में कभी उनके, छिछला सा भी कोलाहल हो
मन में तीव्र धधकती , जुगुप्सा का बडवानल हो
युग से चलती आयी तृष्णा का , शायद कोई अस्ताचल हो


निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे  बोये
आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
लेकिन वो  अपना दीदा खोता  , जो अंधे के आगे रोये
"आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए

Tuesday, June 14, 2011

कमनीय स्वप्न


सम्मानीय दोस्तों , समयाभाव और व्यस्तता के कारण, अपने आप को अभिव्यक्त करने के लिए लिखी जाने वाली पंक्तिया नहीं लिख पा रहा हूँ . सोचा आप लोगों को अपनी एक पुरानी कविता झेलने के लिए फिर से पोस्ट कर दूं . आप में से कुछ लोगों ने ही पढ़ी होगी ये कविता .


कौन थी वो प्रेममयी ,जो हवा के झोके संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव  अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई 


खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी  आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रृंखल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण

मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर पंखुड़ी  सरोज
विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने को कोई अवरोध


कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर  दृग  कोर से , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
ललाट से उनके   कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज


 नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनके  , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
विस्मृत हुआ विषाद अतीत , आयी समीप पुनः मंजिल

Friday, May 13, 2011

सूजा चाँद

स्नेही स्वजनों
अतिशय कार्य व्यस्तता भविष्य में दिख रही है , और नितांत निजी कारणों से थोड़े दिनों का अपने शहर से अप्रवास के कारण ब्लॉग लिखने के कार्य से अवकाश  लेना पड रहा है . लेकिन हम पढने और  टिपियाते रहने का  लोभ शायद ही संवरण कर पाएंगे .  काशी प्रवास के इस अवकाश के दौरान अगर कोई ब्लोगर भाई मिल गया तो शिखर बैठक भी हो सकती है . क्या पता कोई वहा डूबा हुआ मनन कर रहा हो  अपनी कालजयी रचना के सन्दर्भ में .  नीचे लिखी पंक्तियाँ हल्के  अंदाज में लिखी गयी है , और अनुरोध है कि इनको  फुल्के में लिया जाए .




"उपमा कालिदासस्य "ऐसा पढ़ा था
जूठी कर डाली उपमाये कविगण ने
जनकसुता के सौन्दर्य वर्णन को
 नहीं बची उपमा , तुलसी ने कहा था. \


कभी  हम प्राची की  लालिमा से
नायिका के  कपोल   याद करते है
कभी  ट्यूलिप की  अधखुली पंखुड़ी में
अपने प्रीतम को अपलक  निहारते है


कभी महबूब ,हमे चाँद नजर आता है
चाँद से  प्यार, हद से बढ़ जाए तो
आसमान से उतर  घर की देहरी में
बिचारा  वो खूंटी पर भी टंग जाता है


बिम्ब में दिखता है कविता का घनत्व
बेरुखी  में भी हम  देख लेते है अपनत्व
बैठ कर हम  छिछली  नदी   तट पर
ढूँढ लेते है जलधि गर्भ से अनमोल  तत्व


कवि की कल्पना कई बार कमाल करती है
चाँद गर आये धरनी  के पास घूमकर
कहते है चाँद का मुँह  सूजा है
फिर भी चांदनी मस्त निर्झर सी झरती है


चाँद  तो बदरी में छुप जाता है
कवि जी उपमाये गढ़ते रहते है
अद्भुत बिम्बों और प्रतीकों में
जनता को उलझाये रहते है .

Wednesday, April 27, 2011

प्लावन

तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
 गगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला

एकाकी मन में स्मृतियाँ  
जग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघों के तम को चीर रही 
मधुरतम स्मृति एक  उज्ज्वल

 गोरज, रजत भस्म सी दिखती, 
 बैठी तरुवर  के दल पर
 नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के सप्तम स्वर

 चपला दिखलाती मेघ वर्ण
संग में गुरुतर गर्जन तर्जन
 घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन

नभ गंगा की धवल फुहारें,
सिंचीत  करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लावित होता ह्रदय मरुस्थल











Saturday, April 9, 2011

दृढ प्रतिज्ञता

लो  हो गयी आत्म सम्मान यज्ञ  की पूर्णाहुति
वैभव विलासिनी दिल्ली में , जगी जन अनुभूति
कर्मठता की प्रतिमूर्ति रवि , कब ढल सकता है
जलद पटल को भेद , व्योम में संबल भरता है

 भरा तुणीर शरों से, जन की आकाक्षाओ वाली
 कर में धन्वा ,धर्म अहिंसा की प्रत्यांचाओ वाली
कोटि जन मन से समर्थित ,शिष्ट सौम्य आचार
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,

हवन अग्नि बुझ चुकी, और आशा के दीप जगमग
अभी कहाँ विश्राम बदा है , मीलों है चलना डगमग
स्वजनों के हित में , इस युग तप का टंकार किया
हिमालय  शैल सा रहा अटल. कंचित  ना अहंकार पिया 


भ्रष्टाचार के पदघात से ,जन जीवन शुचिता से क्षीण हुआ
स्वर्ण मरीचि के भ्रम में , ह्रदय मानवता का  विदीर्ण   हुआ
जगो आर्यवर्त के सिंहो ,जाग्रति की  अलख  जगानी है
कृशकाया पर दृढ प्रतिज्ञ ने , गण मन में भर दी रवानी है ,




Tuesday, March 29, 2011

आभार का भार

मार्च का महीना हमारे जैसे  नौकरीपेशा लोगों के लिए सरकारी आभारों  का चुकाने का समय होता है . कल इन सब आभारों  से निपटते हुए एक ख्याल आया की कवि लोग अपने पाठकों का आभार देने के लिए कौन सा रास्ता अख्तियार करते होंगे .मेरी पिछली  कविता पर श्रीयुत अनूप शुक्ल जी ने अपनी टिपण्णी में कहा था की ऐसी जनता कविता की सर्जना होती रहनी चाहिए . इस उत्प्रेरण के लिए उनका  कोटिशः आभार .

अस्त व्यस्त से  दिख रहे कविवर  और थोड़े बेचैन
अति गहन चिंतित , नैन जागे से लागे  सगरी  रैन
जहां होती थी काव्यांजलि अब लेजर और नंबर पैन है
उर्वशी ,रश्मिरथी  के पन्नो में दिखती उनको टैक्समैन है

मैंने पूछ लिया कौन सा गम ,उनको कर गया इतना विह्वल
क्यों मुख है  क्लांत मलिन सा जैसे नायिका कर गई  छल
बोले, बन्धु नहीं था काम दुनिया से,मदरसा है वतन अपना
सोचा था मरेंगे हम किताबो में , सफें  होगे कफ़न अपना

कहने लगे ,कवि पाते प्रेरणा  गगन और चाँद से
 सुना है उत्प्रेरित होना निज ह्रदय  के अनुनाद से
राह चलते कह देते है कुछ लिखते रहो बरखुरदार
मौका मिलते ,धर देते है सर पे आभार का अधिभार

जोड़ रहे आभार कविवर , किसका कितना है देना
भरा पड़ा है एहसानों से रोजनामचा का हर कोना
क्रेडिट डेबिट कर रहे है , भूल गए  दोहे और छंद
साल्वेज वैल्यू  निकाल रहे , मीर कासिम और जयचंद

कुछ आभार है फिक्स डिपाजिट ,है  कुछ बचत खाता
कुछ टीडीस काट के मिलते, कुछ कराते  है जगराता
क्रेडिटर्स खड़े है दंड लिए, आभार इनवेजन की तोहमत लगाते
हमने कल आभार रिटर्न फाइल किया, किये जीरो बैलेंस खाते






Wednesday, March 23, 2011

सर्वाधिकार असुरक्षित

 होली आयी , लोग रंग गए . कोई प्रेम के रंग में , कोई भंग के तरंग में . मेरे एक मित्र है जो पेशे से पत्रकार है उनसे बातचीत के दौरान कुछ हलके फुल्के क्षणों में ये विचार आये तो मैंने सोचा इन्हें कलम बद्ध कर ही लिया जाय . काशी के अस्सी घाट वाला कवि सम्मलेन पर चर्चा हुई . अब आप लोग अनुमान लगा सकते है की कैसा मूड रहा होगा ऐसी परिचर्चा के बाद .   अब इसे होली के परिप्रेक्ष्य में निर्मल हास्य की तरह  ही लिया जाना चाहिए . 

खबर को अख़बार से उड़ाकर कर हम  खबरनवीस बन जाते है
बदल थोडा सा कलेवर उसका  , ना छपासों के रकीब बन जाते है

अगरचे मिल गया  राह में कोई , एक स्वनामधन्य  सा पत्रकार
कैसे उसका प्रयोग किया जाय , ये सोच कर होते हम  बेकरार

अख़बार ख़बरों का सागर . कोई कहता छलके  है गागर
निकल गया उसमे से दो चार बूंद,  तो काहे फाटे  है बादर

अब हम अगर गोते लगाकर ढूढ़ लाते है, कुछ खोखली सीप
ना जाने क्यू लोग झाँकने लगते है, खाली बोतल में लगा कीप

कल शाम उड़ा ले गया अख़बार की कतरन, हवा का थपेड़ा  
जिसे ढूंढने में जाने कितने पापड़ बेले , उसे क्या पता निगोड़ा

लोग कहते है तुलसी ने बाल्मीकि से,  विषयवस्तु ले ली थी उधार
हम तो किसी से लेकर पूरा लेख भी . लिखते नहीं किनसे साभार

सर्वाधिकार सुरक्षित है ,लिखने से क्या हम टीपने से बाज आते है?
नक़ल कर मन वीणा के , ना जाने कितने तारो वाले साज बजाते है ..

ये टीपना सर्वत्र है, सार्वभौम  है  , सत्य के सिवा और कुछ भी नहीं है
कोई अध्यादेश ,करदे हमको इससे वंचित , ऐसा उसमे दम ही  नहीं है
























Friday, March 11, 2011

दिल के झरोखें से

व्यतीत हुए दिन धुर विषाद के
फैला आलोक तिमिर छितराया
प्राची के अरुण मुकुट में
प्रतिबिंबित स्वर्णिम हर्ष की छाया
सुख से सूखे इस जीवन में
शाद्वल सा कुछ स्फुटित हुआ
 जीवन पथ के उष्ण  शैलों पर
श्यामल तृण सा पनप उठा
जीवन गगरी जो खाली थी
अश्रु- घाट बन गया था तन
विस्मृत सपने फिर सजीव हुए
दिख रहे जुगनू लघु हीरक कण
खिड़की से गोचर  नव नभ कानन
 रमणीक, आदि कवि के छंद सा
उस दूर क्षितिज में मंथर विचरता
राका का मधु छलकाता आनन
प्रखर चांदनी में विसर रहा मन का अवसाद
सुरभि लहरियों का आलिंगन
कामना स्रोत जगाती है
मन मयूर अह्वलादित, छंट गए प्रमाद .









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Saturday, February 26, 2011

मै लौट आया

इन दिनों कुछ मौसम बदला है
कलतक चुभा करती थीं ये खिड़कियाँ
अब नज़रें पीछा करतीं हैं
मुक्त गगन के उड़ते पंछी
इन दिनों कुछ तो बदला है
सुगंध हवाओ में रची बसी
खिड़की की  बंद कगारों से
टकराकर एहसास भी लौट जाते थे
सुकून कही किसी कोने में दुबककर
अतृप्त से मन में खो जाते थे
निरभ्र आकाश अहर्निश
मेरे खालीपन का द्योतक था
इस लौकिक काया  में कुछ भी
अब्दों से घटा ना कुछ रोचक था
सजल नैनो में तिमिर था  छाया
स्पंदित होती थी  व्यथा
मन के अरण्य में विकलता
संज्ञाशून्य विचरती थी  यथा
कल हमने खिड़की के पट खोले
विभ्रम की घडिया अतीत हुई
कलरव इस  सांध्य मलय का
मलयानिल मकरंद घोले
अब पट रजनी के भाते है
प्रेम- सुतीर्थ स्नान सुहाता है
प्राण पपीहा की सरस ध्वनि
जीवन वर्त्ति सा भाता है ..

Wednesday, February 16, 2011

सीख ममता की .

आजकल कुछ व्यावसायिक व्यस्तता इतनी बढ़ गयी है की कुछ सोचने और लिखने का समय नहीं निकाल पा रहा हूँ. उम्मीद है आपका लोगों का अनुराग बना रहेगा . अभी कुछ दिन पहले मेरी माताश्री जो हिंदी में परास्नातक और डोक्टोरेट है उनका एक पत्र मेरे हाथ लगा जो उन्होंने मेरी अग्रजा को लिखा था जब वो उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गयी . उनकी लिखी वो पंक्तिया आप सबसे बांटकर मुझे अच्छा महसूस हो  रहा है .उम्मीद है आप गुनीजनो को पसंद आएगी .

अरे अभी तक तुम यही हो ?
यह तो आगे बढ़ने का वक्त है
जहाज में चढ़ने का वक्त है
मत भूलो तुम्हारी शिराओ में मेरा रक्त है

मस्तूल तन चुके है बहती बयार से
सब थक गए है तेरे इंतजार से
मेरा आशीर्वाद तुम स्वीकार करना
जाते जाते मेरी बातें याद रखना

भाव मित्रता का रखना , ना होने देना उसमे अति
सच्चे मित्र पा जाओ तो दिल से रखना वो संगति
हर अनजाने का हाथ थामने में ना समय गवाना
खुद किसी से निष्प्रयोजन ना ही झगड़ जाना

ध्यान से सबको सुनना पर, उपदेश देना कम
राय सबकी सुनना पर. खुद के निर्णय में थोडा थम
तड़क भड़क से दूर रहना, नहीं बढती इनसे शान
सीधी और सरल जिंदगी से, मिलती जीवन की पहचान

मर्यादा में ही रहना, चाहे खाओ घास फूस
जीवन भर अपने प्रति ,अगर तुम सच्ची  रहोगे
कभी किसी से झूठे पन का, बोझा नहीं सहोगे
तुम चाँद सी ही रहोगी , चाहे फाग हो या पूस

 तुम प्रखर हो उदात्त हो,एक हो घणो में
पर एक माँ के ह्रदय से निकली उक्त पंक्तिया
अपनी लाडली से बिछड़ने पर हुई रिक्तियां
शुकून दे सकेगी शायद विछोह के इन क्षणों में
















Thursday, January 6, 2011

कल जीवन से फिर मिला

कल वो सामने बैठी थी
कुछ संकोच ओढे  हुए
सजीव प्रतिमा, झुकी आंखे
पलकें अंजन रेखा से मिलती  थी



मेरे मन के निस्सीम गगन में
निर्जनता घर कर आयी थी
आकुल मन अब  विचलित है
मुरली बजने लगी जैसे निर्जन में


 
खुले चक्षु से यौवनमद का रस बरसे
अपलक मै निहार रहा श्रीमुख को
सद्य स्नाता चंचला जैसे
निकल आयी हो चन्द्र किरण  से



उसने जो दृष्टी उठाई तनिक सी
मिले नयन उर्ध्वाधर से
अधखुले अधरों में स्पंदन
छिड़ती मधुप तान खनक सी
 


ना जाने ले क्या अभिलाष
मेरे जीवन की नवल डाल
बौराए नव  तरुण रसाल
नव जीवन की फिर दिखी आस



सुखद भविष्य के सपनो में
निशा की घन पलकों में झांक रहा
बिभावरी बीती, छलक  रही उषा
जगी लालसा ह्रदय के हर कोने में .