Sunday, July 16, 2017

इह मृगया

सुनो तुम ईवा हो 
कभी सोने के रंग जैसी 
तो कभी फूलों की उमंग जैसी 
कभी कच्ची मखमली घास की छुवन
युग ,संवत्सर , स्वर्ग और भुवन 
तुम्हारा शरीर क्या है
दो नदियाँ मिलती है अलग होती है
तुम भाव की नदी बनकर धरती की माँझ हो
भाव की देह हो भाव का नीर हो
भाव की सुबह और भाव की सांझ हो
तुमने सुना है देह वल्कल क्या चीज़ है ?
तुम्हारे दोनों ऊरुओं के मध्य
घूमता है स्वर्णिम रौशनी का तेज चक्र
उत्ताप से नग्न वक्ष का कवच
मसृण और स्निग्ध हो जाता है
तुम रति हो फिर भी
तुम्हारी भास्वर कांतिमय देह
किसी कामी पुरुष की तरह स्रवित नहीं होती
सुनो ! आकाश भी छटपटाता है
धरती बधू को बाँहों में घेरने के लिए
वधू -धरित्री की भी ऐसी आकांक्षा होगी
नहीं पता मै लिख पाया या नहीं
लेकिन ये है इह मृगया
जाने गलत है या सही .