रवि रश्मि जनित गुरु ताप तपे
दुर्गम पथ पर चल अब श्रांत हुआ
मुख म्लान शिशिर -हत-पंकज सा
तब कंठ तृषातुर क्लांत हुआ.
तब कंठ तृषातुर क्लांत हुआ.
ज्योतिहीन जीवन -जग में,
कंटक -कुल -संकुल मग में,
भटक भटक पद छिन्न हुए,
मुझ से मेरे भिन्न हुए .
छल छल कर छलक रहा रस स्रोत
प्रतिक्षण नूतन स्वाद बहे
यह मोहक मानस पूर्ण पड़ा
रसपान करो पर याद रहे
तव धूल भरे पद पथिक ! नहीं
इस निर्मलता के अँक सने
बन पंक धूल इन चरणों की
इस मानस का ना कलंक बने .