आज १७ सितम्बर है जो दो महत्वपूर्ण घटनाओ का साक्षी है . पहला तो भगवान विश्वकर्मा को समर्पित दिवस और दूसरा मेरे ब्लॉग का अवतरण दिवस . हा हा . कुछ ज्यादा हो गया तो माफ़ कर दीजियेगा . अंतर्जाल से परिचय तो पुराना है लेकिन हिंदी ब्लॉग्गिंग से मेरे एक भूतपूर्व मित्र ने परिचय कराया. हिंदी ब्लॉग जगत में आते जाते (जो शुरुआत में केवल एक- दो ब्लॉग तक सीमित था) रहे और पढने की उत्कंठा बढती गई..महीनो तक एक पाठक की हैसियत से मै साहित्य रस लेता रहा . इस बीच अंतर्जाल पर कुछ स्वनामधन्य ब्लोग्गरों से मिलने का मौका मिला जिसमे आदरणीया संगीता स्वरुप जी , शिखा वार्ष्णेय जी , रेखा श्रीवास्तव् जी , दिव्या जी . प्रमुख रही . आप लोगों द्वारा बार बार मिले प्रोत्साहन ने मुझे अपना ब्लॉग बनाने को प्रेरित किया .डरते डरते मैंने अपनी पहली पोस्ट लिखी. एक साल की इस यात्रा में कई खट्टे मीठे अनुभवों से भी गुजरने का मौका मिला . इस अनवरत यात्रा में श्रीयुत अनूप शुक्ल जी , श्रीयुत मनोज कुमार जी जैसे मूर्धन्य ब्लोगरों का प्रोत्साहन हमेशा प्रेरणाप्रद होता है मेरी कलम के लिए. ब्लॉग जगत का शुक्रिया जो मुझ अकिंचन की लिखी पंक्तियों को अपनी गुणी नजरों से परखता है अपने टिपण्णी के माध्यम से. ज्यादा ना लिखते हुए मै अपनी उन पक्तियों को आप सबके नजर करना चाहूँगा जो मेरे मनोभावों की दर्पण है . . .आपका सबका प्यार और प्रोत्साहन अभिभूत करता है .
मै लिख नहीं सकता, क्योकि मेरे ज्ञान चक्षु बंद है.
हाँ मै प्रखर नहीं हूँ, नहीं मेरी वाणी में मकरंद है.
अभिव्यक्ति , खोजती है, चतुर शब्दों का संबल
सक्रिय मष्तिष्क और खुले दृग , प्रतिपल
दिवास्वप्न जैसा क्यों मुझे सब प्रतीत होता है.?
क्या हर लेखक का लिखने का अतीत होता है?
क्या मै संवेदनहीन हूँ, या मेरी आंखे बंद है
या नहीं जानता मै , क्या नज़्म क्या छंद है.
वेदना को शब्द देना, पुलकित मन का इठलाना.
सर्व विदित है शब्द- शर , क्यू मै रहा अनजाना
मानस सागर में है उठता ,जिन भावो का स्पंदन.
तिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन.
मै लिख नहीं सकता, क्योकि मेरे ज्ञान चक्षु बंद है.
हाँ मै प्रखर नहीं हूँ, नहीं मेरी वाणी में मकरंद है.
अभिव्यक्ति , खोजती है, चतुर शब्दों का संबल
सक्रिय मष्तिष्क और खुले दृग , प्रतिपल
दिवास्वप्न जैसा क्यों मुझे सब प्रतीत होता है.?
क्या हर लेखक का लिखने का अतीत होता है?
क्या मै संवेदनहीन हूँ, या मेरी आंखे बंद है
या नहीं जानता मै , क्या नज़्म क्या छंद है.
वेदना को शब्द देना, पुलकित मन का इठलाना.
सर्व विदित है शब्द- शर , क्यू मै रहा अनजाना
मानस सागर में है उठता ,जिन भावो का स्पंदन.
तिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन.