Saturday, April 20, 2013

बधशाला -7

तेरे कर्मो ही ने ! तुझको , इतनी आफत में डाला
मैंने माना रहा न कोई , तेरा हरदम दिल काला
पेशानी पर शिकन न लाना , और न करना कोई गम 
दुनिया जिसको ठुकराती है, गले लगाती बधशाला

राग रंग में सभी मस्त है , कभी ठेठ शाही आला 
कभी निराशा है जीवन में , कभी जला है दिल वाला 
उछल कूद संसार सिन्धु में , क्यों तू गोते खाता है 
एक बार में पार लगा , देती है उनकी बधशाला 

देख देख कर फूल रहा है , माया में दिल का काला
तेरा ये सब कुटुंब कबीला , नहीं काम आने वाला
मोह त्याग ! है सबको मरना , कर्म वीर ! गायी गीता
खोल गया अर्जुन कुटुंब की , कुरुक्षेत्र में बधशाला

चूस चूस कर खून गरीबों , का यह भवन बना डाला
बड़े गर्व से क्या गद्दी पर, मूंछ मरोड़े मतवाला
कभी न सोचा आँख मिचैगी , ठाट बाट रह जायेगा
जरा देर के सुख को तूने , खोली कितनी बधसाला


तेरा इनका जिस्म एक सा ,रंग रूप भी है आला 
यह भी बेटे उसी पिता के , है जिसने तुझको पाला
एक बाप की संताने क्या , नहीं प्रेम से रहती है 
मिलो गले से और खोल दो . छूत छात की बधशाला 

धर्म नहीं है ! अरे बर्फ है , छूने से गलने वाला
नहीं धर्म वह चीज़ जला दे , छूते ही जिसको ज्वाला
इंसानों को इंसानों से , घृणा हुई ये कैसा धर्म
अरे अधर्मी ! क्यों न खोलता , हठ धर्मी की बधशाला