Tuesday, September 28, 2010

सर्प और सोपान

जीवन का कटु  यथार्थ है , सांप सीढ़ी का खेल
त्रासदी है मानव जीवन की, इन संपोलो  से मेल
मनुष्य और सर्प के रिश्ते ,  है बो गए विष बेल

ना जाने कितने अश्वसेन, कितने विश्रुत  विषधर  भुजंग
बढ़ा रहे शोभा कुटिल ह्रदय की, जैसे वो  उनका हो निषंग
                                   ताक में रहता है वो , कब छिड़े  महाभारत जैसा कोई  प्रसंग

है जरुरत इस धरा को , जन्मेजय के पुनः अवतरण   का
पाने को, गरल से छुटकारा,है जरुरत अमिय के  वरण का
या फिर जरुरत है हमे , हम अनुसरण करे महान करण का

 अगर मानव हो  सतर्क , वो गरल वमन नहीं कर सकता है
लाख कोशिशे  , लाख जतन, प्रत्यंचा पर नहीं चढ़ सकता है
कर हन्त, कुटिल  विषदंत का , जीवन आगे बढ़ सकता है.


 यू तो सोपान भी है प्रतीक , मनुष्य के अभिमान का
 जो रह गए , उसे चिढाती,जो चढ़ गए ,उनके सम्मान का   
हे मानव  , सुधि लो, वक्त है सांप सीढ़ी के बलिदान का










Sunday, September 26, 2010

गेहूं बनाम गुलाब

बगिया में है खिल रहे , शुभ्र   धवल गुलाब
उर्ध्वाधर ग्रीवा,चन्द्रकिरण में नहाये हुए

भ्रमर गीत  गुनगुना रहे , मुदित मन रहा नाच
आती सोंधी सुगंध छन के  , है घनदल छाये हुए .

मधुकर का मिलन गीत ,  पिक की विरह तान
मंदिर की दिव्य वाणी   , मस्जिद की   अजान

कलियों की चंचल  चितवन , पुष्प  का मदन बान
लतिका का कोमल गात, देख रहा अम्बर विहान

कोयल की  मधुर कूक ,क्या क्षुधा हरण  कर सकती है ?
कर्णप्रिय  भ्रमर गीत , माली का  पोषण कर सकती है ?

सुमनों के सौरभ हार, सजा सकते है  पल्लव केश
बिखरा सकते है खुशबू, बन सकते है देवो का अभिषेक

पर क्या ये सजा सकते है , दीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
हमे जरुरत है किसकी ज्यादा , सोचिये गेंहू बनाम गुलाब?

Wednesday, September 22, 2010

मन का दीप

यू करो मन का दीप  प्रज्ज्लावित  ,  निर्मम तम , क्लांत ना कर पाए
आशा के तुम दीप जलाओ , दीखे प्रदीप , मन अशांत ना कर पाए

प्राण की बाती, स्वावलंबन की मशाल से , ह्रदय चीरते तम का
उच्छ्वास बने  पुण्य प्रकाश , हो ये द्रष्टान्त अपूर्व और  अनुपम सा

बनो मानवता के पथ प्रदर्शक , तिमिर चाहे कितना भी घनेरा हो
निज मन की दीप्ती से कह दो , ना चिराग तले कभी अँधेरा हो

हो कितना भी गहरा नैराश्य भाव  , जिजीविषा बिखर ना पाए
स्फुलिंग, इस विद्रूप जड़ता का , कही और प्रखर ना हो जाये

धरा का हर कण , प्रकाश पुंज , चिन्तनशील और देदीप्यमान हो
कर सके समूल नाश, तिमिर और तमस का, हम ऐसे प्रकाशवान हो

Sunday, September 19, 2010

कमनीय स्वप्न

कौन थी वो प्रेममयी , जो हवा के झोके     संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव  अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई 


 खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी  आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रीन्खल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण

मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर   पंखुड़ी  सरोज
क्यों विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने  को कोई अवरोध


कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर  दृग  कोर से मै , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
उसके , ललाट से  कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज


नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनकी , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
हम खो गए थे अपने अतीत में , आयी समीप पुनः मंजिल .

Friday, September 17, 2010

मै लिख नहीं सकता

मै लिख नहीं सकता, क्योकि मेरे ज्ञान चक्षु बंद है.
हा मै पंकज नहीं  हूँ, नहीं मेरी वाणी में मकरंद है.

अभिव्यक्ति , खोजती  है चतुर शब्दों का संबल
सक्रिय मस्तिस्क और  खुले दृग , प्रतिपल

दिवास्वप्न जैसा क्यों मुझे सब प्रतीत होता है.?
क्या हर लेखक का लिखने का अतीत होता है?

क्या मै संवेदनहीन हूँ या मेरी  आंखे बंद है
या नहीं जानता मै , क्या नज़्म क्या छंद है.

वेदना  को शब्द देना, पुलकित  मन का इठलाना.
सर्व विदित है शब्द- शर , क्यू मै रहा अनजाना

मानस सागर में  है उठता , जिन  भावो  का स्पंदन.
तिरोहित होकर वो शब्दों में, चमके जैसे कुंदन.