Tuesday, March 29, 2011

आभार का भार

मार्च का महीना हमारे जैसे  नौकरीपेशा लोगों के लिए सरकारी आभारों  का चुकाने का समय होता है . कल इन सब आभारों  से निपटते हुए एक ख्याल आया की कवि लोग अपने पाठकों का आभार देने के लिए कौन सा रास्ता अख्तियार करते होंगे .मेरी पिछली  कविता पर श्रीयुत अनूप शुक्ल जी ने अपनी टिपण्णी में कहा था की ऐसी जनता कविता की सर्जना होती रहनी चाहिए . इस उत्प्रेरण के लिए उनका  कोटिशः आभार .

अस्त व्यस्त से  दिख रहे कविवर  और थोड़े बेचैन
अति गहन चिंतित , नैन जागे से लागे  सगरी  रैन
जहां होती थी काव्यांजलि अब लेजर और नंबर पैन है
उर्वशी ,रश्मिरथी  के पन्नो में दिखती उनको टैक्समैन है

मैंने पूछ लिया कौन सा गम ,उनको कर गया इतना विह्वल
क्यों मुख है  क्लांत मलिन सा जैसे नायिका कर गई  छल
बोले, बन्धु नहीं था काम दुनिया से,मदरसा है वतन अपना
सोचा था मरेंगे हम किताबो में , सफें  होगे कफ़न अपना

कहने लगे ,कवि पाते प्रेरणा  गगन और चाँद से
 सुना है उत्प्रेरित होना निज ह्रदय  के अनुनाद से
राह चलते कह देते है कुछ लिखते रहो बरखुरदार
मौका मिलते ,धर देते है सर पे आभार का अधिभार

जोड़ रहे आभार कविवर , किसका कितना है देना
भरा पड़ा है एहसानों से रोजनामचा का हर कोना
क्रेडिट डेबिट कर रहे है , भूल गए  दोहे और छंद
साल्वेज वैल्यू  निकाल रहे , मीर कासिम और जयचंद

कुछ आभार है फिक्स डिपाजिट ,है  कुछ बचत खाता
कुछ टीडीस काट के मिलते, कुछ कराते  है जगराता
क्रेडिटर्स खड़े है दंड लिए, आभार इनवेजन की तोहमत लगाते
हमने कल आभार रिटर्न फाइल किया, किये जीरो बैलेंस खाते






Wednesday, March 23, 2011

सर्वाधिकार असुरक्षित

 होली आयी , लोग रंग गए . कोई प्रेम के रंग में , कोई भंग के तरंग में . मेरे एक मित्र है जो पेशे से पत्रकार है उनसे बातचीत के दौरान कुछ हलके फुल्के क्षणों में ये विचार आये तो मैंने सोचा इन्हें कलम बद्ध कर ही लिया जाय . काशी के अस्सी घाट वाला कवि सम्मलेन पर चर्चा हुई . अब आप लोग अनुमान लगा सकते है की कैसा मूड रहा होगा ऐसी परिचर्चा के बाद .   अब इसे होली के परिप्रेक्ष्य में निर्मल हास्य की तरह  ही लिया जाना चाहिए . 

खबर को अख़बार से उड़ाकर कर हम  खबरनवीस बन जाते है
बदल थोडा सा कलेवर उसका  , ना छपासों के रकीब बन जाते है

अगरचे मिल गया  राह में कोई , एक स्वनामधन्य  सा पत्रकार
कैसे उसका प्रयोग किया जाय , ये सोच कर होते हम  बेकरार

अख़बार ख़बरों का सागर . कोई कहता छलके  है गागर
निकल गया उसमे से दो चार बूंद,  तो काहे फाटे  है बादर

अब हम अगर गोते लगाकर ढूढ़ लाते है, कुछ खोखली सीप
ना जाने क्यू लोग झाँकने लगते है, खाली बोतल में लगा कीप

कल शाम उड़ा ले गया अख़बार की कतरन, हवा का थपेड़ा  
जिसे ढूंढने में जाने कितने पापड़ बेले , उसे क्या पता निगोड़ा

लोग कहते है तुलसी ने बाल्मीकि से,  विषयवस्तु ले ली थी उधार
हम तो किसी से लेकर पूरा लेख भी . लिखते नहीं किनसे साभार

सर्वाधिकार सुरक्षित है ,लिखने से क्या हम टीपने से बाज आते है?
नक़ल कर मन वीणा के , ना जाने कितने तारो वाले साज बजाते है ..

ये टीपना सर्वत्र है, सार्वभौम  है  , सत्य के सिवा और कुछ भी नहीं है
कोई अध्यादेश ,करदे हमको इससे वंचित , ऐसा उसमे दम ही  नहीं है
























Friday, March 11, 2011

दिल के झरोखें से

व्यतीत हुए दिन धुर विषाद के
फैला आलोक तिमिर छितराया
प्राची के अरुण मुकुट में
प्रतिबिंबित स्वर्णिम हर्ष की छाया
सुख से सूखे इस जीवन में
शाद्वल सा कुछ स्फुटित हुआ
 जीवन पथ के उष्ण  शैलों पर
श्यामल तृण सा पनप उठा
जीवन गगरी जो खाली थी
अश्रु- घाट बन गया था तन
विस्मृत सपने फिर सजीव हुए
दिख रहे जुगनू लघु हीरक कण
खिड़की से गोचर  नव नभ कानन
 रमणीक, आदि कवि के छंद सा
उस दूर क्षितिज में मंथर विचरता
राका का मधु छलकाता आनन
प्रखर चांदनी में विसर रहा मन का अवसाद
सुरभि लहरियों का आलिंगन
कामना स्रोत जगाती है
मन मयूर अह्वलादित, छंट गए प्रमाद .









.