Thursday, September 4, 2014

बधशाला -18





हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई, कोई भी हो मतवाला 
जात पात और छुआ छूत का , यहाँ नहीं परदा काला
इसी घाट से राजा उतरे , यही रंक के लिए खुला 
भेद भाव को भूल सभी को , एक बनाती बधशाला.


तेरा इनका जिस्म एक सा , रंग रूप भी है आला
ये भी बेटे उसी पिता के , है जिसने तुझको पाला
एक बाप की संताने क्या , नहीं प्रेम से रहती है 
मिलो गले से और खोल दो , छुआ छूत की बधशाला .


मृगनयनी को छोड़ अरे तू , दाब बगल में मृगछाला 
आसन मार बैठ मरघट में , वीर मुंड के लै माला
सत्यम शिवम् सुन्दरम का तू , जाप किये जा ध्यान लगा 
तब जग के कण कण में तुझको , दिख पड़ेगी बधशाला 

2 comments:

  1. इसी घाट राजा निकला , वही उठा रंक भी ! फिर कैसा भेदभाव !
    सार्थक रचना

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