मेरे शव को हाथ लगाये , जिसके कर में छाला
मेरी अर्थी में, घायल जो , हो कन्धा देने वाला
जिसके दिल में आग लगी हो , वही चिता मेरी फूंके
कर्म करे तो बांध कफ़न सर , सीधे जाये बधशाला
गर्म रक्त से ! मेरा तर्पण , हो कोई करने वाला
सहसबाहु का परशुराम ने , जैसे वंश मिटा डाला
तृप्त आत्मा होगी मेरी , कहीं जुल्म का नाम न हो
जहाँ मिले कोई भी जालिम , वहीँ खोल दो बधशाला
जो कुछ समझा मैंने उतना, वीरों का यश लिख डाला
क्षमा करो अपराध ! भूल है , नहीं है मेरा दिल काला
रहे शेष जो उनकी पदरज , निज मस्तक पर धरता हूँ
देश धर्म हित खोल चुके , या देख चुके जो बधशाला
जो कुछ समझा मैंने उतना, वीरों का यश लिख डाला
ReplyDeleteसशक्त भाव
....बेहतरीन लय व अद्भुत जोश ....!!चलती जाये ....बढ़ती जाए बाधशाला ...!!
ReplyDeleteकिस पंक्ति को रेखांकित करूँ, स्तब्ध हूँ - कमाल लिखा है
ReplyDeleteस्पंदित बंदित अवगुण निवारक, कर्मबद्ध ओजस्वी वधशाला।।
ReplyDelete🙏🏻🙏🏻