हिन्दू मुस्लिम सिक्ख ईसाई, कोई भी हो मतवाला
जात पात और छुआ छूत का , यहाँ नहीं परदा काला
इसी घाट से राजा उतरे , यही रंक के लिए खुला
भेद भाव को भूल सभी को , एक बनाती बधशाला.
तेरा इनका जिस्म एक सा , रंग रूप भी है आला
ये भी बेटे उसी पिता के , है जिसने तुझको पाला
एक बाप की संताने क्या , नहीं प्रेम से रहती है
मिलो गले से और खोल दो , छुआ छूत की बधशाला .
मृगनयनी को छोड़ अरे तू , दाब बगल में मृगछाला
आसन मार बैठ मरघट में , वीर मुंड के लै माला
सत्यम शिवम् सुन्दरम का तू , जाप किये जा ध्यान लगा
तब जग के कण कण में तुझको , दिख पड़ेगी बधशाला
उत्कृष्ट पंक्तियाँ
ReplyDeleteइसी घाट राजा निकला , वही उठा रंक भी ! फिर कैसा भेदभाव !
ReplyDeleteसार्थक रचना