बिन बरसा आषाढ़
आंसू हो गए गाढ़
होठो में फटी बिवाई
अब हंसने को तरस रहे.
फुहारों की छुवन अब कहाँ
अंगो में सिहरन अब कहाँ
देखे मेढ़ो को टुकुर टुकुर
नैना सुखने को तरस रहे.
सन्नाटा है घर बार में
अंखुआ सूख गए बंसवार में.
कातिक में कैसे खेत बुवाई
बैल नधने को तरस रहे .
फटी हुई है मंगई की छाती
घर में भूजी भाँग है थाती
आशा भी अब अस्ताचल को
पौ फटने को तरस रहे .
सावन आ पहुंचा .... अब तो बरसें
ReplyDeleteगहरे भाव ....
भावपूर्ण ... गहरे ... अंतस को छूते ...
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