Saturday, July 12, 2014

मंगई की छाती

बिन बरसा आषाढ़ 
आंसू हो गए गाढ़
होठो में फटी बिवाई 
अब हंसने को तरस रहे.


फुहारों की छुवन अब कहाँ 
अंगो में सिहरन अब कहाँ 
देखे मेढ़ो को टुकुर टुकुर 
नैना सुखने को तरस रहे.


सन्नाटा है घर बार में 
अंखुआ सूख गए बंसवार में.
कातिक में कैसे खेत बुवाई 
बैल नधने को तरस रहे .


फटी हुई है मंगई की छाती
घर में भूजी भाँग है थाती 
आशा भी अब अस्ताचल को 
पौ फटने को तरस रहे .

2 comments:

  1. सावन आ पहुंचा .... अब तो बरसें
    गहरे भाव ....

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  2. भावपूर्ण ... गहरे ... अंतस को छूते ...

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