तरल तरंगो सी क्षण क्षण नव
केलि कामनाएं करती
थिरक थिरक मेरे मानस में
अतुलित आन्दोलन भरती
वीचि वृन्द के चंचल उर में
उत्कंठा ने ले अवतार
चित्र विचित्र खीच दिखलाया
मणि मंडित आभरण अपार
उनसे उदगत दीप्त दीप्ति से
सज्जित सुन्दर उनके अंग
उस कल्पित आकर्षक छवि पर
मन में ऐसी उठी उमंग
लड़ी जगत चिंता की टूटी
कर देता सब कुछ निस्सार
उन्हें मिली वो मणियाँ सुन्दर
इसी अर्थ सारे व्यापार
नित नवीन श्रम जनित खेद से
खिन्न हुआ मै अति ही श्रांत
मुकुलित चर्म-चक्षु , उन्मीलित
मानस के लोचन अभ्रांत
उनसे बाह्य जगत की मणियाँ
लज्जित थी पा गहरी हार
वो फूली नहीं समाई मन में
मिला देख सच्चा भंडार
हंस कर मैंने निज जड़ता पर
हर्षित होकर खोई भ्रान्ति
सुलझ गई जीवन की उलझन
मेरी मिटी अपरिमित श्रांति .
अद्भुत ..... द्वंद्व का उत्कृष्ट रेखांकन
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट रचना ....
ReplyDeleteभ्रांतियाँ सब दूर और सुख मिला भरपूर .. :)
ReplyDeleteबहुत अच्छे शब्दों में उलझन सुलझने की बधाई :)
ReplyDeleteअद्भुत.. क्या उलझन की सुलझन है
ReplyDeleteलपट की बाहर होती क्रीड़ा है
ReplyDeleteकितनी मादक यह पीड़ा है...
आन्तरिक जगत की संजीवनी के समक्ष वाह्य जगत का खजाना तृण मात्र है ,,, निर्विवाद सत्य है … ठीक वैसे ही जैसे भूमिगत जल सतह को उर्वर होने के लिए तैयार करता है और प्रकृति को सम्पूर्ण करता है ….(पर क्या सभी भूमि उर्वर है ?? शायद नहीं …)
ReplyDeleteमानवीय गरिमा को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उसकी उत्कृष्टता और मर्यादा के पोषण के लिए तत्वज्ञान पाना सच ही कौस्तुभ मणि को पाने जैसा है . जीवन का ये दर्शन ...कितनी खूबसूरती से सहज ही रच गए आप .... शुभाशीष तो बनता है भाई .... .बेहतरीन...
दी, जित्ती गहराई में जाकर आप सोचती हो न , कई बार मई सोचता हूँ कि मैंने क्या ऐसे सोचा था . और नहीं सोचा था तो आपसे प्रेरणा लेकर कोशिश करूँगा . आशीर्वाद बना रहे बस.
Deleteapne andar ki aantrik sundarta ko pehchaane...
ReplyDeletebahari jagat ki katrim sundarta main apne ko na uljhaye....
yeh baat gar jo samajh gaya wo har uljhan se ubar gaya...
अनुपम कविता...उत्कृष्ट शब्दों से सजी...
ReplyDeleteजो धारे मानस में मंजरी...शुभ्र ज्योत्सना से भरपूर
बाह्य मणियों में खोते नहीं...रहते आडम्बर से दूर......
उत्कृष्ट प्रस्तुति .....हर बार निशब्द करती हुयी !!
ReplyDeleteअनुपम काव्य ... धब्द, बंध, लय का अध्बुध मिश्रण ...
ReplyDeleteमधुर आनंद ...
आतंरिक चिंतन को गहराई से शब्दों में ढाल दिया है .....बहुत खूब
ReplyDeleteउनसे बाह्य जगत की मणियाँ
ReplyDeleteलज्जित थी पा गहरी हार
वो फूली नहीं समाई मन में
मिला देख सच्चा भंडार
क्यों न पाये सच्ची ख़ुशी आखिर ....
उत्कृष्ट रचना !
उम्दा रचना
ReplyDeletehttp://hindibloggerscaupala.blogspot.in/ दिन शुक्रवार २२/११/२०१३ आपकी रचना को शामिल किया गया हैं कृपया अवलोकन हेतु पधारे
ReplyDeleteकमाल, कमाल केवल कमाल
ReplyDeleteप्रशंसा करनी है तत्काल
चाहा बुनूं शब्दों के जाल
पड़ गया शब्दों का ही अकाल :(
सुंदर उत्कृष्ट भाव एवं शब्द ....!!आनंद दायक रचना ...
ReplyDeleteखूब भालो बाबू मोशाय.............
ReplyDeleteमन के गहरे जाल सुलझाती..
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