Wednesday, July 10, 2013

बधशाला -10

यह कुटुंब, धन, धाम कहाँ है , अरे साथ जाने वाला
जिसके पीछे तूने पागल , क्या अनर्थ न कर डाला
नित्य देखता है तू फिर भी , जान बूझकर फंसता है
"जग जाने " पर ही यह जग है , सो जाने पर बधशाला.



जितना ऊँचा उठना चाहे , उठ जाये उठने वाला
नभ चुम्बी इन प्रासादों को , अंत गर्त में ही डाला
जहाँ हिमालय आज खड़ा है , वहां सिधु लहराता था
लेती है जब करवट धरती, खुल जाती है बधशाला 



खिसक हिमालय पड़े सिन्धु में , लग जाये भीषण ज्वाला
गिरे ! टूट नक्षत्र भूमि नभ , टुकड़े टुकड़े कर डाला
अरे कभी मरघट में जाकर , सुना नहीं प्रलयंकर गान
ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं, ये बधशाला

14 comments:

  1. धन्य हो भाई तुम ,,,उस मन- मस्तिष्क को सादर नमन जिस में ऐसे सुंदर और बढ़िया विचार आते हैं
    जियो ख़ुश रहो !!!

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  2. हर पल बढ़ते रहते हम सब,
    अन्त जहाँ, सब त्यक्त वहीं,
    मन के सारे अनसुलझों का,
    मर्म उमड़ता, व्यक्त वहीं।

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  3. अद्भुत..
    कमाल की रचना......
    अब कोई ईर्ष्या करे बिना कैसे रहे :-)

    अनु

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  4. प्रभावशाली श्रृंखला में जुड़ी एक और सुन्दर कड़ी...!
    चलता रहे चिंतन... बढ़ती रहे काव्ययात्रा!

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  5. अध्बुध ... नमन है आपकी कलम को ...
    गहरा चिंतन .. रुकने न पाए ये प्रवाह ... आमीन ...

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  6. ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं, ये बधशाला .... कुछ भी साथ नहीं जाता ...
    नश्वर संसार को परिभाषित करती सुन्दर पंक्तियाँ ... :)

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  7. गज़ब है , गज़ब है , गज़ब है ..

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  8. बेहद उम्दा | लाजवाब

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  9. लेती है जब करवट धरती, खुल जाती है बधशाला ...
    speechless

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  10. अरे कभी मरघट में जाकर , सुना नहीं प्रलयंकर गान
    ब्रम्ह सत्य है ! और सत्य है , विश्व नहीं, ये बधशाला

    ...बहुत उत्कृष्ट प्रस्तुति...

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  11. गहन होती हर श्रंखला .....जीवन सत्य से करीब ...आध्यात्म से जुड़ती हुई ...!!बहुत प्रभावी ...!!अमर होगी यह बधशाला ....!!

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  12. भीषण , प्रलयंकर ये बधशाला..अति सुन्दर..

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