Tuesday, May 22, 2012

मेघ और हम

बरस गए मेघ, रज कण में
तृण  की पुलकावली भर

तुहिन कणों से उसके ,
 अभिसिंचित हो उठे तरुवर

लिख कवित्त,विरुदावली गाते
लेखनी श्रेष्ठ कविवर





पादप, विटपि, विरल विजन में,
भीग रहे नख -सर

  पा प्रेम सुधा को  अंक में ,
स्वनाम धन्य हो रहे सरोवर

कृतार्थ भाव मानती धरा,
खग कुल -कुल  गाते  सस्वर





अलि गुंजत है अमलतास पर ,
ढूंढ़ रहे सुमधुर पराग

आली निरखत है निज प्रिय को,
भरे नयन अतुल अनुराग

प्रणयातुर विहग-कीट उल्लासित,
अविचल  गाते प्रेम राग 




कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव
 मेघो से कब सीखेंगे

ऊपर उठकर  निज स्वार्थ से
युग बृक्ष को कब सीचेंगे

शत योजन आच्छादित  मेघो पर
कभी तो ये  मन रीझेंगे .

16 comments:

  1. कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव
    मेघो से कब सीखेंगे
    ऊपर उठकर निज स्वार्थ से
    युग बृक्ष को कब सीचेंगे
    शत योजन आच्छादित मेघो पर
    कभी तो ये मन रीझेंगे .



    इन पंक्तियों का उत्तर तो अब देने का समय नहीं रहा . कभी समय होता था कि प्रकृति से सन्देश लेकर जीवन चला करते थे.
    अब तो तेरे आगे रहने से मुझको है परेशानी,
    चल हट मुझे आगे होने दे कहे तो न हो हैरानी.

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    1. शब्द शब्द से भीगी माटी की सोंधी-सोंधी महक उठ रही है ...आनंदित करती मन ...
      बहुत सुंदर सन्देश और प्रकृति वर्णन भी ...!!
      एक और उत्कृष्ट रचना ....
      बधाई एवं शुभकामनायें .....!!

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  2. प्रकृति हमें पूरा जीवन दर्शन देती है. पर हम समझते कहाँ हैं.
    काश कुछ सीख लेते हम इन प्रकृति के संदेशवाहकों से.
    उत्कृष्ट रचना.

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  3. अलि गुंजत है अमलतास पर ,
    ढूंढ़ रहे सुमधुर पराग
    आली निरखत है निज प्रिय को,
    भरे नयन अतुल अनुराग
    प्रणयातुर विहग-कीट उल्लासित,
    अविचल गाते प्रेम राग ...

    इस प्रेम गीत के मधुर गुंजन को अध्बुध शब्दों में बांधा है आपने ... काव्यमय .. भावमय अभिव्यक्ति ...

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  4. कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव
    मेघो से कब सीखेंगे
    ऊपर उठकर निज स्वार्थ से
    युग बृक्ष को कब सीचेंगे
    शत योजन आच्छादित मेघो पर
    कभी तो ये मन रीझेंगे .
    bas is baat ki keval ummid hi ki jaa sakti hai warnaa sikhne ko to kab kaa sikh chukaa hota manaav....

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  5. हमेशा की तरह वज़नी रचना है....
    जाने कितनी बार पढ़ना होता है भीतर उतारने को.....
    :-)
    शुभकामनाएँ स्वीकारें........

    अनु

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  6. कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव
    मेघो से कब सीखेंगे
    ऊपर उठकर निज स्वार्थ से
    युग बृक्ष को कब सीचेंगे

    सचमुच, मेघों से हमें सीख लेनी चाहिए।
    अच्छी कविता।

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  7. सुंदर शाब्दिक चित्रण ..... जीवन से जुड़ी सी बातें

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  8. 'कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव
    मेघो से कब सीखेंगे
    ऊपर उठकर निज स्वार्थ से
    युग बृक्ष को कब सीचेंगे'
    वाह!
    सटीक प्रश्न उठाती उत्कृष्ट रचना!

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  9. बहुत सुंदर भाव की कविता लिखी है। जो समझ में आ रहा है वह यह कि दु:खों से भरी इस दुनिया में सच्‍चे प्रेम की एक बूंद भी मरूस्‍थल में सागर की तरह है।

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  10. अद्भुत भाव व शब्द संचरण, मन मोहते..

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  11. प्रकृति से सार्थक संदेश देती अद्भुत रचना ...
    कलह--प्रेम की मूर्ति, हम मानव
    मेघो से कब सीखेंगे
    ऊपर उठकर निज स्वार्थ से
    युग बृक्ष को कब सीचेंगे
    शत योजन आच्छादित मेघो पर
    कभी तो ये मन रीझेंगे .

    निज स्वार्थ ही तो नहीं छूटता ....सब उसी को सींचने में लगे रहते हैं ...पावस का सुंदर वर्णन

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  12. वाह जी सुंदर रचना सुघड़ शब्‍दचयन

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  13. बड़ी गरमी पड़ रही है। ये मेघ कब बरसेगा?

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  14. प्रशंसनीय कविता। मेघा अब तू बरस जा । बहुत सुंदर । मेरे नए पोस्ट "कबीर" पर आपका स्वागत है । धन्यवाद।

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  15. अनंत रसों में भी हम अंजुरी भर भी न पाते हैं तो मेघों से सीखना तो दूर की बात है..उत्तम कृति..

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