खिल रहे है बगिया में ,
शुभ्र धवल गुलाब
विटप गीत गुनगुना रहे ,
मुदित मन रहा नाच
छन -छन आती सोंधी सुगंध ,
है घनदल छाये हुए .
कलियों की स्मित मुस्कान
चन्द्रकिरण में नहाये हुए
मधुकर का मधुर मिलन गीत
पिक की विरह तान
मंदिर की दिव्य वाणी ,
मस्जिद से आती है अजान
कलियों की चंचल चितवन ,
मदन का पुष्प बान
लतिका का कोमल गात,
देख रहा अम्बर विहान
कोयल की मधुर कूक ,
क्या क्षुधा हरण कर सकती है ?
कर्णप्रिय भ्रमर गीत ,
माली का पोषण कर सकती है ?
सुमनों के सौरभ हार,
सजा सकते है कुंचित केश
बिखरा सकते है खुशबू,
बन सकते देवो का अभिषेक
पर क्या ये सजा सकते है ,
दीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
क्षुधा शांत गेहूं ही करता,
फिर मन भाता है गुलाब
बदल रहे समय का स्पष्ट प्रभाव प्रेम की अवधारणा पर देखने को मिलता है। एक ओर जहां नैतिकताओं और मर्यादाओं से लुकाछिपी है तो दूसरी ओर स्वच्छंदताओं के लिए नया संसार बनाने का प्रयास है।
ReplyDeleteइस कविता में आपकी आवाज़ संघर्ष की जमीन से फूटती आवाज़ है। कविता की अंतिम पंक्तियां तो सादगी के अंदाज में ताना मारती है। युगों युगों से गेंहूं ही भारी पड़ता अया है।
मन और पेट की यहब कशमकश सदियों से ही चली आ रही है ..क्या करें दोनों ही जरुरी हैं.आपने इस भावना को सुन्दर शब्द दिए हैं.
ReplyDeleteऔर मनोज जी की टिप्पणी की अंतिम पंक्तियों से पूर्णत: सहमति.
बहुत सुंदर भाव ... कहा भी गया है पहले पेट पुजा फिर काम दूजा ... तो गेंहू का पलड़ा तो भारी होना ही था ...
ReplyDeleteकोयल की मधुर कूक ,
ReplyDeleteक्या क्षुधा हरण कर सकती है ?
कर्णप्रिय भ्रमर गीत ,
माली का पोषण कर सकती है ?
यथार्थ और स्वप्न का आमना सामना है आज की इस कविता में ....!!दोनों की अपनी अपनी अलग जगह है ...किन्तु फिर भी ...इसमें कोई शक नहीं, जीत तो गेहूं की ही होगी .....बहुत सुंदर भाव ...!!
सही है. वो माली जो दिन रात बगिया में काम करता है फूलों के बीच रहता है कभी उस माली की झोपड़ी की ओर ध्यान ही कहां जाता है जहां एक वक्त की रोटी भी मुश्किल से जुगाड़ी जाती होगी. पेट भरा होने पर ही गुलाब की महक और खूबसूरती लुभा सकती है, सुन्दर है.
ReplyDeleteपर क्या ये सजा सकते है ,
ReplyDeleteदीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
क्षुधा शांत गेहूं ही करता,
फिर मन भाता है गुलाब
सच है ....पर जाने ये कैसा विरोधाभास है होता तो यही है....
बहुत सुंदर भाव हैं...................
ReplyDeleteआँखें कोई पेट का ख़याल थोड़ी करती हैं......
उनकी समझ ज़रा उथली है......
अनु
अभी यात्रा में गेहूँ के लहलहाते सुनहरे खेत देख कर आ रहे हैं, हमको तो वही सोना अच्छा लगता है।
ReplyDeleteभूखे भजन न होंही गोपाला...
ReplyDeleteपेटको गुलाब नहीं गेंहू ही चाहिये. सुंदर प्रस्तुति.
क्षुधा शांत गेहूं ही करता,
ReplyDeleteफिर मन भाता है गुलाब
सत्य है!
सुन्दर अभिव्यक्ति!
पर क्या ये सजा सकते है ,
ReplyDeleteदीन- हीन आँखों में ख्वाब ?
क्षुधा शांत गेहूं ही करता,
फिर मन भाता है गुलाब
वाह, सटीक और सार्थक अभिव्यक्ति।
किसान तो गेहूँ और गुलाब दोनो की खेती करते हैं। हम पहले गेहूँ फिर गुलाब खरीदते हैं।
ReplyDeleteसुन्दर भाव
ReplyDeleteगेंहुन का पलड़ा तो भारी होना ही है क्यूंकि वो कहते है न भूखे पेट भजन न होए गोपाला तो फिर और किसी कार्य कि तो बात ही क्या.... गुलाब से गेंहु का यह काव्य चित्रण बहुत खूबसूरत शब्द संयोजन के साथ लिखा है आपने... आभार
ReplyDeleteइस कविता से मुझे रामवृक्ष बेनीपुरी जी का आलेख याद आया. गेहू और गुलाब का संतुलन होना चाहिये.
ReplyDeleteनिशब्द करती आपकी रचना कृति...पर इस पड़ाव पर आकर फिर से मैं सोचने को बाध्य हो रही हूँ..कि ..गेंहू और गुलाब में कैसी समानता...
ReplyDeleteNyc
ReplyDeleteAap ki Kavita padhi post bhi ki uttam
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