कल गोधुलि में, किसी ने मेरे ,अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह लगाया
क्षण भर को वितृष्णा जाग उठी , अकिंचन मन भी अकुलाया
दुर्भेद्य अँधेरे में भी, मन दर्पण , प्रतिबिंबित करता मेरी छाया
लाख जतन कोटि परिश्रम , पर अस्तित्व बिम्ब नजर न आया
विस्फारित नेत्रों से नीलभ नभ में , ढूंढ़ता अपने स्फुटन को
मार्तंड की रश्मि से पूछा , टटोला फिर निशा के विघटन को
क्या उसके कलुषित ह्रदय का , ये भी कोई ताना बाना है?
या उसके कुटिल व्यक्तित्व का , कोई पीत पक्ष अनजाना है
उठा तर्जनी किसी तरफ , चरित्र हनन, हो गया शोशा है
हम निज कुंठा जनित स्वरों से , अंतर्मन को दे रहे धोखा है
हम खोज रहे अस्तित्व अपना , जैसे कस्तूरी ढूंढे मृग राज
बिखर नहीं सकता ,कालखंड में , जिसकी त्वरित गति है आज
आपकी इस रचना पर पहली प्रतिक्रिया के रूप में यह
ReplyDeleteकस्तूरी कुन्डल बसे, म्रग ढ़ूंढ़े बन माहिं ।
ऐसे घट-घट राम है, दुनिया देखे नाहिं ॥
फिर से आता हूं कुछ और सोचकर, एक बार और पढ़कर।
हम खोज रहे अस्तित्व अपना , जैसे कस्तूरी ढूंढे मृग राज
ReplyDeleteबिखर नहीं सकता ,कालखंड में , जिसकी त्वरित गति है आज
Wah! Kya likha hai!
आभार
Deleteअब आपकी रचना के स्तर की टिप्पणी देना तो हमारे बस में नहीं है...
ReplyDeleteमगर सीधे सरल शब्दों में आपकी लेखनी को दाद अवश्य दे सकते है...
बहुत सुन्दर रचना...
धन्यवाद अभिव्यक्ति जी
Deleteआप स्वनाम- धन्य है . आपकी टिपण्णी उत्साह बढाती है .
इस बदलते समय में सभ्यता की ऊपरी चमक दमक के भीतर उजड़ती सभ्यता, सूखती और सिकुड़ती संस्कृति की इस त्रासद स्थिति में आलोचना करने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, खुद की समीक्षा करने वाले कम। जब हम एक उंगली किसी को दिखाते हैं तो तीन उंगली अपनी ओर ही होती है। कविता में इसी संवेदना का विस्तार व्यापक रूप से देखा जा सकता है।
ReplyDeleteशब्द सामर्थ्य, भाव-सम्प्रेषण, लयात्मकता की दृष्टि से कविता अत्युत्तम हैं।
आप विलक्षण दृष्टि वाले हो जो इतना सब देख लेते है साधारण सी कविता में . आभार
Deleteदूसरे पर तो उंगली सभी आसानी से उठा देते हैं .... लेकिन बिरले ही फिर आत्म - मंथन किया करते हैं ... गहन मंथन को कहती अच्छी रचना ...
ReplyDeleteमथन चल रहा है उम्मीद है अमृत की .
Deleteप्रश्न उठाना औरों की नियति है, हम अपने उत्तर पहले से ढूढ़े और सुलझाये बैठे हैं। Giving allowances for their doubting too.
ReplyDeleteसत्य वचन प्रवीण जी
Deleteक्या उसके कलुषित ह्रदय का , ये भी कोई ताना बाना है?
ReplyDeleteया उसके कुटिल व्यक्तित्व का , कोई पीत पक्ष अनजाना है
आज की भागती हुई जीवन शैली में मनुष्य अपने स्वाभाविक गुण "मानवता "से दूर हो गया है |संभवतः इसीलिए ह्रदय कलुष से भर गया है |ऐसे में ही हम अपना अस्तित्व बनाये रखें ....बहुत बड़ी बात है .....
आपकी उत्कृष्ट लेखनी आज बहुत सोच का सामान दे रही है ...!!शब्द,भाव तथा विचार तीनो का संगम लिए उत्तम रचना ...!!
मानवता वाले गुण को संजो रखने की कोशिश जारी है .
Deleteउठा तर्जनी किसी तरफ , चरित्र हनन, हो गया शोशा है
ReplyDeleteहम निज कुंठा जनित स्वरों से , अंतर्मन को दे रहे धोखा है
अद्भुत पंक्तियाँ हैं.....
आभार
Deleteअद्भुत!!!
ReplyDeleteवाह! इस अंतर्दृष्टि को नमन!
जिन ढूंढा तिन पाईयां
Deleteबड़ी ऊंची बात कह दी जी आपने तो !
ReplyDeleteअस्तित्व खो गया तो उचित जगह एफ़ आई आर कराइये।
बाकी मनोज कुमार जी ने कहा ही है उसई से काम चलाया जाये।
करा दिया है रिपोर्ट. थाने में कोई जान पहचान हो बताइयेगा
Deleteजब सारे विचार गिर जाते है तब भी कोई मुस्काते हुए हमें संभाले रहता है वही अस्तित्व है.ऊँगली उठाने वाले अपनी तरफ से तो गूढ़ संकेत ही देते हैं.. काव्य-शिल्प बांधे रखती है और प्रवाह बहा ले जाती है..
ReplyDeleteअमृत वचन , सत्य वचन .आभार
Deleteक्या उसके कलुषित ह्रदय का , ये भी कोई ताना बाना है?
ReplyDeleteया उसके कुटिल व्यक्तित्व का , कोई पीत पक्ष अनजाना है ...
चाहे कैसा भी पक्ष हो ... अस्तित्व को लीलना आसान नहीं होता ... वो तो मुखर रहता है प्रकाश की तरह ... सुन्दर रचना ... लाजवाब शिल्प ...
उत्साह बढ़ाने के लिए शुक्रिया
Deleteअच्छी है. बहुत अच्छी है. :)
ReplyDeleteकम शब्दों को ज्यादा समझा जाए :)
आपने तो गागर में सागर भर दिया .
Deletegazab ka likha hai aapne aapki to bhasha he man mohleti hai to rachna k fir kya kahne....:)...
ReplyDeleteसम्प्रेषण की अदना कोशिश की है मैंने . आभार .
Deleteउठा तर्जनी किसी तरफ , चरित्र हनन, हो गया शोशा है
ReplyDeleteहम निज कुंठा जनित स्वरों से , अंतर्मन को दे रहे धोखा है
हम्म विचारणीय ...पर सबसे आसान काम तो यही है न ..दूसरों की कमियां निकलना,उन पर उंगली उठाना.
गज़ब का शब्द प्रवाह.
सत्य वचन . धन्यवाद
Deleteस्वाद सफलता का चखा उसीने
ReplyDeleteजिसने किया स्वयं का मूल्यांकन
जो करता रहा औरों का विश्लेषण
उसने सदा खोया गौरव धन
आपकी लेखनी में एक अलग सा जादू है ,बस पढ कर मन खुश हो जाता है ............. थोडा हमको भी सिखा दीजिये ना......
अपर्णा तेरे लिए पोस्ट -डोक्टोरेट के लिए ये विषय चुन लिया गया है . हा हा
Deleteउठा तर्जनी किसी तरफ , चरित्र हनन, हो गया शोशा है
ReplyDeleteहम निज कुंठा जनित स्वरों से , अंतर्मन को दे रहे धोखा है!
सुन्दर शब्दों का चयन कविता को जीवंत कर देता है , काश हम भी ऐसा कर पाते !
आपकी कवितायेँ प्रभावित करती है . स्पष्ट सम्प्रेषण भूमि पर . आभार .
Delete. आभार .
ReplyDeleteआपकी ये रचना मुझे बरसो पहले लिखी कुछ पंक्तिया याद दिलाती है
ReplyDeleteआये है जीने के लिये या मृत्यु के लिये जीते है
कही मृत्यु तो वही नही हम जिसको जीवन कहते है.
गज़ब की शब्द सामर्थ्य है आपकी ...
ReplyDeleteशुभकामनायें !
मन की उलझनों को बेहद प्रखर और स्पष्ट स्वर मिल गये .... बहुत बढिया !!!
ReplyDeleteदुर्भेद्य अँधेरे में भी, मन दर्पण , प्रतिबिंबित करता मेरी छाया
ReplyDeleteलाख जतन कोटि परिश्रम , पर अस्तित्व बिम्ब नजर न आया
अस्तित्व की तलाश करती बहुत अच्छी कविता।
अति सुन्दर, सादर.
Deleteकृपया मेरे ब्लॉग" meri kavitayen" की नवीनतम प्रविष्टि पर भी पधारें.