Wednesday, April 27, 2011

प्लावन

तपती दुपहरिया गुजर चुकी ,
 गगन लोहित हो चला
उफनाते नयनों से ढलकर,
दुःख मेरा तिरोहित हो चला

एकाकी मन में स्मृतियाँ  
जग जग उठती है पल प्रतिपल
मेघों के तम को चीर रही 
मधुरतम स्मृति एक  उज्ज्वल

 गोरज, रजत भस्म सी दिखती, 
 बैठी तरुवर  के दल पर
 नीरव प्रदोष में क्लांत मन ,
सुनता विहगों के सप्तम स्वर

 चपला दिखलाती मेघ वर्ण
संग में गुरुतर गर्जन तर्जन
 घनीभूत अवसाद मिटाते,
नीलाम्बर में मुक्तावली बन

नभ गंगा की धवल फुहारें,
सिंचीत  करती है उर स्थल
स्पर्श मलय का आमोदित करता
प्लावित होता ह्रदय मरुस्थल











Saturday, April 9, 2011

दृढ प्रतिज्ञता

लो  हो गयी आत्म सम्मान यज्ञ  की पूर्णाहुति
वैभव विलासिनी दिल्ली में , जगी जन अनुभूति
कर्मठता की प्रतिमूर्ति रवि , कब ढल सकता है
जलद पटल को भेद , व्योम में संबल भरता है

 भरा तुणीर शरों से, जन की आकाक्षाओ वाली
 कर में धन्वा ,धर्म अहिंसा की प्रत्यांचाओ वाली
कोटि जन मन से समर्थित ,शिष्ट सौम्य आचार
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,

हवन अग्नि बुझ चुकी, और आशा के दीप जगमग
अभी कहाँ विश्राम बदा है , मीलों है चलना डगमग
स्वजनों के हित में , इस युग तप का टंकार किया
हिमालय  शैल सा रहा अटल. कंचित  ना अहंकार पिया 


भ्रष्टाचार के पदघात से ,जन जीवन शुचिता से क्षीण हुआ
स्वर्ण मरीचि के भ्रम में , ह्रदय मानवता का  विदीर्ण   हुआ
जगो आर्यवर्त के सिंहो ,जाग्रति की  अलख  जगानी है
कृशकाया पर दृढ प्रतिज्ञ ने , गण मन में भर दी रवानी है ,