सम्मानीय दोस्तों , समयाभाव और व्यस्तता के कारण, अपने आप को अभिव्यक्त करने के लिए लिखी जाने वाली पंक्तिया नहीं लिख पा रहा हूँ . सोचा आप लोगों को अपनी एक पुरानी कविता झेलने के लिए फिर से पोस्ट कर दूं . आप में से कुछ लोगों ने ही पढ़ी होगी ये कविता .
कौन थी वो प्रेममयी ,जो हवा के झोके संग आई
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई
खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रृंखल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण
मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर पंखुड़ी सरोज
विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने को कोई अवरोध
कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर दृग कोर से , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
ललाट से उनके कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज
नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनके , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
विस्मृत हुआ विषाद अतीत , आयी समीप पुनः मंजिल
जिसकी खुशबू फ़ैल रही है , जैसे नव अमराई
क्षीण कटि, बसंत वसना, चंचला सी अंगड़ाई
खुली हुई वो स्निग्ध बाहें , दे रही थी आमंत्रण
नवयौवन उच्छश्रृंखल. लहराता आंचल प्रतिक्षण
लावण्य पाश से बंधा मै, क्यों छोड़ रहा था हठ प्रण
मृगनयनी,तन्वांगी , तरुणी, उन्नत पीन उरोज
अविचल चित्त , तिर्यक दृग ,अधर पंखुड़ी सरोज
विकल हो रहा था ह्रदय , ना सुनने को कोई अवरोध
कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
देखकर दृग कोर से , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
ललाट से उनके कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज
नहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
आलिंगन बद्ध होते ही उनके , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
विस्मृत हुआ विषाद अतीत , आयी समीप पुनः मंजिल
कामप्रिया को करती लज्जित , देख अधीर होता ऋतुराज
ReplyDeleteदेखकर दृग कोर से , क्यों बजने लगे थे दिल के साज
ललाट से उनके कुंचित केश हटाये,झुके नयन भर लाज...
आपके चित्त की चंचल अवस्था को अभिव्यक्त करती सुन्दर अभिव्यक्ति।
Enjoy the beautiful moments.
.
रचना के भाव कहीं आपकी व्यस्तता का कारण तो नहीं पुरानी ही सही सुन्दरता में कम नहीं
ReplyDeleteजी जी समझ गए:).आपकी व्यस्तता और कविता के भाव, दोनों का कारण समझ गए:):) .
ReplyDeleteइस सुन्दर रचना को दुबारा पढवाने का शुक्रिया.
कमाल का शब्दिक अलंकरण...... उत्कृष्ट रचना ...
ReplyDeleteनहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
ReplyDeleteआलिंगन बद्ध होते ही उनके , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
bhaw chitra manmohak hai
एक पुरानी कविता झेलने के लिए....
ReplyDeleteये क्या बात हुई आशीष जी....पुरानी है तो क्या.... बहुत ही सुन्दर कविता है.
मनोभावों को बेहद खूबसूरती से पिरोया है आपने....... हार्दिक बधाई।
Kavita jhelee nahee...khoob aanand uthaya!
ReplyDeletebhut hi sunder bhaavo aur shabdo se saji rachna....
ReplyDeleteनहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
ReplyDeleteआलिंगन बद्ध होते ही उनके , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
बहुत ही सुंदर,
आभार, विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
thoughtful poem
ReplyDeleteबहुत सुन्दर, मनमोहक और भावपूर्ण रचना!
ReplyDeleteकल्पना, भावों, शब्दों और लय का अद्भुत संयोजन..बहुत सुन्दर
ReplyDeleteहमने तो इस रचना को पहली बार पढा । हम आज तक नही समझ पाये कैसे आप शब्दों का इतना सुन्दर जाल बुनते है । भावों की महिमा तब और भी बढ जाती है , जब उनको सुन्दर शब्दों का आश्रय मिलता है ।हमेशा की तरह आज भी जय शंकर प्रसाद जी की आपने याद दिला दी
ReplyDeleteअहा, हमने तो पहली बार पढ़ी।
ReplyDeleteसुन्दर भाव ... मन से निकले हुए ... पहले जितनी ही आनंद दायक लगी ...
ReplyDeleteअब सपने से जाग कर हकीकत से रु ब रु होईये
beautiful.
ReplyDeleteनहीं मनु मै, ना वो श्रद्धा, पुलकित नयन गए थे मिल
ReplyDeleteआलिंगन बद्ध होते ही उनके , मुखार्व्रिंद गए थे खिल
विस्मृत हुआ विषाद अतीत , आयी समीप पुनः मंजिल ...
अद्बूध शब्द संयोजन और गेय्ता ... बहुत सुंदर गीत ... मज़ा आ गया पढ़ कर ...
आप ऐसा भी लिखते हैं, मुझे बिलकुल ही पता नहीं था...
ReplyDeleteसुखद आश्चर्य हुआ...
श्रृंगार की इतनी कोमल सरल और सरस अभिव्यक्ति किसके चित्त को रससिक्त नहीं करेगी...
बस आपसे अनुरोध है कि आगे भी इस तरह छंदबद्ध रचनाएं अपने कलम से निकलते रहें...
sunder abhivyakti ..!!
ReplyDeleteनिर्झर की तरह कल-कल करती सुन्दर रचना....
ReplyDeleteकहीं मैं कामायनी तो नहीं पढ़ रही .नैन तरस जाते हैं ऐसी कालजयी रचना पढ़ने के लिए.हार्दिक आभार.
ReplyDeleteयदि काम की व्यस्तता के कारन इतनी अच्छी कविता पढ़ने को मिले तो आपका व्यस्त रहना सही है. हमें तो कविता पढ़ने को मिलती रहे.हा हा हा....
ReplyDeleteआशीष जी, श्रृंगार रस की सुंदर कविता के लिए आभार।
ReplyDeleteभाई आशीष जी सुंदर कविता और सुंदर कमेंट्स के लिये आभार
ReplyDeleteआशीष जी, अच्छी कविता है। सुन्दर भावाभिव्यक्ति। कृपया "मुखार्विंद" को मुखारविन्द कर लें। क्षमा-याचना के साथ सुझाव दे रहा हूँ। और सुझाव अलग से लिखूँगा। साधुवाद।
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