Tuesday, June 21, 2011

असतो माँ सदगमय

 
कोई विषवमन करता है किसी की आड़ में
कोई लटका हुआ है, दुरभिसंधि के ताड़ में
किसने किसके पीठ में, नुकीला छुरा भोका
ना जाने कितने तिनके है, उनकी दाढ़ में


मुखालफत करने की भी, एक मियाद होती है
पानी अगर रुक जाए रूह में, तो दाद होती है
लिबलिबी सी सोच लेकर, वो सोच सकते क्या
इंसानियत सर पटकती है, औ फरियाद रोती है

मुँह  फुलाए गोलगप्पे में , कड़वा पानी का स्वाद
इर्ष्या की पराकाष्ठा भर देती है , नन्हे घाव में मवाद
बख्शी  है उनको खुदा ने, दिल की बेरुखी बेहिसाब
ठान ली कंटीले बेर ने , स्निग्ध केर को करना है बर्बाद


नव कंचन घट से जैसे ,छलकता हुआ हलाहल हो
अंतर्मन में कभी उनके, छिछला सा भी कोलाहल हो
मन में तीव्र धधकती , जुगुप्सा का बडवानल हो
युग से चलती आयी तृष्णा का , शायद कोई अस्ताचल हो


निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे  बोये
आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
लेकिन वो  अपना दीदा खोता  , जो अंधे के आगे रोये
"आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए

40 comments:

  1. लेकिन वो अपना दीदा खोता , जो अंधे के आगे रोये
    "आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए...

    Indeed it's foolish to caste pearls before a swine.

    .

    ReplyDelete
  2. निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे बोये
    आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
    लेकिन वो अपना दीदा खोता , जो अंधे के आगे रोये
    क्या बात कही है.सटीक एकदम.
    पर खुशनुमा दिनों में ऐसी रचना :):)

    ReplyDelete
  3. नव कंचन घट से जैसे ,छलकता हुआ हलाहल हो
    अंतर्मन में कभी उनके, छिछला सा भी कोलाहल हो
    मन में तीव्र धधकती , जुगुप्सा का बडवानल हो
    युग से चलती आयी तृष्णा का , शायद कोई अस्ताचल हो


    मुहावरे ऐसे ही नहीं बने हैं :) अंधे के आगे रोये अपने नैन खोये

    सटीक प्रस्तुति

    ReplyDelete
  4. अब क्या कहूँ इस रचना के भाव शिल्प और प्रवाह सौन्दर्य पर ?????

    कोई शब्द नहीं मेरे पास...

    ReplyDelete
  5. कमाल के भाव लिए है रचना की पंक्तियाँ .......

    ReplyDelete
  6. मुखालफत करने की भी, एक मियाद होती है
    पानी अगर रुक जाए रूह में, तो दाद होती है
    लिबलिबी सी सोच लेकर, वो सोच सकते क्या
    इंसानियत सर पटकती है, औ फरियाद रोती है

    bahut badhiya...

    ReplyDelete
  7. कसावदार प्रस्तुति -आशीष प्रबल है माया जग की इन्सां के सोचे क्या होय .

    ReplyDelete
  8. निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे बोये
    आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
    लेकिन वो अपना दीदा खोता , जो अंधे के आगे रोये
    "आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए

    रोष प्रकट करती ....कटु सत्य कहती प्रस्तुति....

    ReplyDelete
  9. नव कंचन घट से जैसे ,छलकता हुआ हलाहल हो
    अंतर्मन में कभी उनके, छिछला सा भी कोलाहल हो
    मन में तीव्र धधकती , जुगुप्सा का बडवानल हो
    युग से चलती आयी तृष्णा का , शायद कोई अस्ताचल हो

    गहन अभिव्यक्ति लिए हैं पंक्तियाँ ... सच में सही राह मिले यह आवश्यक है....

    ReplyDelete
  10. लिबलिबी सी सोच लेकर, वो सोच सकते क्या
    इंसानियत सर पटकती है, औ फरियाद रोती है
    गहन अभिव्यक्ति, शुभकामनायें

    ReplyDelete
  11. बहुत सही कहा है ..."आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए
    अब तो इस जगत की माया मोह से उबरने की सोच पनपनी चाहिए। क्यों को तृष्णा का अंत होना बड़ा मुश्किल ही है।

    ReplyDelete
  12. सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ शानदार रचना लिखा है आपने! बेहतरीन प्रस्तुती!
    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है-
    http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com/

    ReplyDelete
  13. माया की भी अजब कहानी,
    नहीं हुई, वह सबने जानी।

    ReplyDelete
  14. बहुत अच्छा लिखा , ऐसी सोच वालों की दुनियाँ में कमी नहीं है और फिर तुमने आइना भी सही ही दिखाया है.

    ReplyDelete
  15. माया महा ठगनी हम जानी .......बहुत सुन्दर सन्देश देती कविता अति सुन्दर लगी..

    ReplyDelete
  16. आपकी किसी पोस्ट की चर्चा होगी शनिवार (25-06-11 ) को नई-पिरानी हलचल पर..रुक जाएँ कुछ पल पर ...! |कृपया पधारें और अपने विचारों से हमें अनुग्रहित करें...!!

    ReplyDelete
  17. निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे बोये
    आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
    लेकिन वो अपना दीदा खोता , जो अंधे के आगे रोये
    "आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए...

    बहुत सटीक और सार्थक प्रस्तुति..भावों और शब्दों का सुन्दर संयोजन..

    ReplyDelete
  18. निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे बोये
    आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
    लेकिन वो अपना दीदा खोता , जो अंधे के आगे रोये
    "आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए bahut hi sunder sunder shabdon main likhi saarthak aur satic post.badhaai sweekaren.


    please visit my blog.thanks

    ReplyDelete
  19. मुखालफत करने की भी, एक मियाद होती है
    पानी अगर रुक जाए रूह में, तो दाद होती है

    बहुत सही बात कही सर!

    सादर

    ReplyDelete
  20. कविता में अच्छा व्यंग किया है,लेकिन मुझे आप का में निकल पड़ा हूँ..............वाला अंदाज ही पसंद आता है.

    ReplyDelete
  21. aasish ji
    aapki kavita ki har panktiyan dil ko andar tak chhooti hain .
    kin panktiyon ki tarrif karun ----
    bahut hi behatreen prastuti v shabdo ka prabal samanjasy aapki rachna ki khobsurti ko bayaan karti hai
    bahut bahut badhai
    poonam

    ReplyDelete
  22. नव कंचन घट से जैसे ,छलकता हुआ हलाहल हो
    अंतर्मन में कभी उनके, छिछला सा भी कोलाहल हो
    मन में तीव्र धधकती , जुगुप्सा का बडवानल हो
    युग से चलती आयी तृष्णा का , शायद कोई अस्ताचल हो

    सटीक शब्दों और सार्थ भावों के मेल से बना यह गीत मन को प्रभावित करता है।

    ReplyDelete
  23. सटीक... प्रभावी पंक्तिय हैं ... लाजवाब रचना है ..

    ReplyDelete
  24. आपके कविता के संसार में भ्रमण करती रहती हूँ .अच्छा लगता है.आभार

    ReplyDelete
  25. बहुत सटीक एवं विचारणीय अभिव्यक्ति!!

    ReplyDelete
  26. निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे बोये
    आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
    लेकिन वो अपना दीदा खोता , जो अंधे के आगे रोये
    "आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए

    बहुत अच्छी लगी रचना...

    ReplyDelete
  27. मुँह फुलाए गोलगप्पे में , कड़वा पानी का स्वाद
    ...गोलगप्पे के पानी का स्वाद तो मस्त होता है। आपने बनारस में खाया नहीं क्या?

    ReplyDelete
  28. सार्थक प्रस्तुति.भावों और शब्दों का सुन्दर संयोजन.

    ReplyDelete
  29. Khurafat bahut prabhavi hai . aabhar

    ReplyDelete
  30. अंतिम पंक्तियों ने विशेष रूप से प्रभावित किया. आभार.


    अंबेडकर और गाँधी

    ReplyDelete
  31. भाई आशीष जी नमस्ते बहुत अच्छी कविता बधाई |

    ReplyDelete
  32. बहुत अच्छी लगी रचना,
    साभार,
    विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

    ReplyDelete
  33. निज भविष्य की चिंता में , गैरों के पथ में कांटे बोये
    आत्म श्लाघा है कुल्हाड़ी जैसे, इज्जत है अपनी खोये
    लेकिन वो अपना दीदा खोता , जो अंधे के आगे रोये
    "आशीष" प्रबल है माया जग की , इंसां के सोचे क्या होए

    अरे वाह... क्या खूब लिखा है बहुत ही सुंदर कविता !और बहुत ही गहरे भाव !

    ReplyDelete
  34. सच को प्रतिबिंबित करती सटीक अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

    ReplyDelete
  35. waiting for your new creation ...

    ReplyDelete
  36. बढ़िया रचना के लिए शुभकामनायें !

    ReplyDelete
  37. प्रबल है माया जग की ...
    आपने तो खूब अनुभव किया है इसे !

    ReplyDelete
  38. मुखालफत करने की भी, एक मियाद होती है
    पानी अगर रुक जाए रूह में, तो दाद होती है
    लिबलिबी सी सोच लेकर, वो सोच सकते क्या
    इंसानियत सर पटकती है, औ फरियाद रोती है

    क्या बात है .......

    आपकी जितनी भाषा पर पकड़ है उतनी ही शब्दों पर ......

    ReplyDelete
  39. बहुत अच्छी तरह से शब्दों को संवारा है...

    ReplyDelete