तेरे कर्मो ही ने ! तुझको , इतनी आफत में डाला
मैंने माना रहा न कोई , तेरा हरदम दिल काला
पेशानी पर शिकन न लाना , और न करना कोई गम
दुनिया जिसको ठुकराती है, गले लगाती बधशाला
राग रंग में सभी मस्त है , कभी ठेठ शाही आला
कभी निराशा है जीवन में , कभी जला है दिल वाला
उछल कूद संसार सिन्धु में , क्यों तू गोते खाता है
एक बार में पार लगा , देती है उनकी बधशाला
देख देख कर फूल रहा है , माया में दिल का काला
तेरा ये सब कुटुंब कबीला , नहीं काम आने वाला
मोह त्याग ! है सबको मरना , कर्म वीर ! गायी गीता
खोल गया अर्जुन कुटुंब की , कुरुक्षेत्र में बधशाला
चूस चूस कर खून गरीबों , का यह भवन बना डाला
बड़े गर्व से क्या गद्दी पर, मूंछ मरोड़े मतवाला
कभी न सोचा आँख मिचैगी , ठाट बाट रह जायेगा
जरा देर के सुख को तूने , खोली कितनी बधसाला
तेरा इनका जिस्म एक सा ,रंग रूप भी है आला
यह भी बेटे उसी पिता के , है जिसने तुझको पाला
एक बाप की संताने क्या , नहीं प्रेम से रहती है
मिलो गले से और खोल दो . छूत छात की बधशाला
धर्म नहीं है ! अरे बर्फ है , छूने से गलने वाला
नहीं धर्म वह चीज़ जला दे , छूते ही जिसको ज्वाला
इंसानों को इंसानों से , घृणा हुई ये कैसा धर्म
अरे अधर्मी ! क्यों न खोलता , हठ धर्मी की बधशाला
मैंने माना रहा न कोई , तेरा हरदम दिल काला
पेशानी पर शिकन न लाना , और न करना कोई गम
दुनिया जिसको ठुकराती है, गले लगाती बधशाला
राग रंग में सभी मस्त है , कभी ठेठ शाही आला
कभी निराशा है जीवन में , कभी जला है दिल वाला
उछल कूद संसार सिन्धु में , क्यों तू गोते खाता है
एक बार में पार लगा , देती है उनकी बधशाला
देख देख कर फूल रहा है , माया में दिल का काला
तेरा ये सब कुटुंब कबीला , नहीं काम आने वाला
मोह त्याग ! है सबको मरना , कर्म वीर ! गायी गीता
खोल गया अर्जुन कुटुंब की , कुरुक्षेत्र में बधशाला
चूस चूस कर खून गरीबों , का यह भवन बना डाला
बड़े गर्व से क्या गद्दी पर, मूंछ मरोड़े मतवाला
कभी न सोचा आँख मिचैगी , ठाट बाट रह जायेगा
जरा देर के सुख को तूने , खोली कितनी बधसाला
तेरा इनका जिस्म एक सा ,रंग रूप भी है आला
यह भी बेटे उसी पिता के , है जिसने तुझको पाला
एक बाप की संताने क्या , नहीं प्रेम से रहती है
मिलो गले से और खोल दो . छूत छात की बधशाला
धर्म नहीं है ! अरे बर्फ है , छूने से गलने वाला
नहीं धर्म वह चीज़ जला दे , छूते ही जिसको ज्वाला
इंसानों को इंसानों से , घृणा हुई ये कैसा धर्म
अरे अधर्मी ! क्यों न खोलता , हठ धर्मी की बधशाला
aapki yeh vadhshaala...bahut sundar
ReplyDeleteचूस चूस कर खून गरीबों , का यह भवन बना डाला
ReplyDeleteबड़े गर्व से क्या गद्दी पर, मूंछ मरोड़े मतवाला
कभी न सोचा आँख मिचैगी , ठाट बाट रह जायेगा
जरा देर के सुख को तूने , खोली कितनी बधसाला
बहुत सही. बधशाला अब आध्यात्म की ओर बढ रही है :) बढिया है.
बधशाला ..एक अनुपम कृति ...!!!!!
ReplyDeleteइंसानों को इंसानों से , घृणा हुई ये कैसा धर्म
ReplyDeleteउत्कृष्ट कृति .... शुभकामनायें
देख देख कर फूल रहा है , माया में दिल का काला
ReplyDeleteतेरा ये सब कुटुंब कबीला , नहीं काम आने वाला
मोह त्याग ! है सबको मरना , कर्म वीर ! गायी गीता
खोल गया अर्जुन कुटुंब की , कुरुक्षेत्र में बधशाला ...
waah !!
धर्म नहीं है ! अरे बर्फ है , छूने से गलने वाला
ReplyDeleteनहीं धर्म वह चीज़ जला दे , छूते ही जिसको ज्वाला
इंसानों को इंसानों से , घृणा हुई ये कैसा धर्म
अरे अधर्मी ! क्यों न खोलता , हठ धर्मी की बधशाला
बहुत उम्दाभिव्यक्ति
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सिर्फ यही कहना है .." बेमिसाल "
ReplyDeleteदेख देख कर फूल रहा है , माया में दिल का काला
ReplyDeleteतेरा ये सब कुटुंब कबीला , नहीं काम आने वाला
मोह त्याग ! है सबको मरना , कर्म वीर ! गायी गीता
खोल गया अर्जुन कुटुंब की , कुरुक्षेत्र में बधशाला
सुपर्ब के अलावा और क्या कहें..
सामाजिक सरोकारों पर दृष्टिपात करती वधशाला ...... इस बार ऐतिहासिक पृष्ठभूमि नहीं दिखी ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
विस्तृत आयाम ....विस्तृत होती बधशाला ....!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ...!!
बहुत अच्छी ...
ReplyDelete...
ReplyDeleteधरा यहीं सब रह जाता है
साथ नहीं जाने वाला
बैठे रहे गिले हम लेकर
चला गया जाने वाला
अभी रोक लो उसे मना लो
बाद में तुम पछताओगे
दूजा मौक़ा ना देगी
तुमको ये निष्ठुर बधशाला ॥
वाह!... अब बधशाला छायावाद की गलियों से गुजर रही है, दर्शन भी समझा रही है।
ReplyDeleteअद्भुत कृति !!!!
ReplyDeleteआत्मसात किया 'गूंगे के सैन से' बधशाला के अंतर्भावों को..
ReplyDeleteवध शाला--- सहज पर गहन अनुभूति
ReplyDeleteसुंदर रचना
उत्कृष्ट प्रस्तुति
आग्रह है मेरे ब्लॉग में भी सम्मलित हों
कहाँ खड़ा है आज का मजदूर------?
लाजवाब |
ReplyDeleteकभी यहाँ भी पधारें और लेखन भाने पर अनुसरण अथवा टिपण्णी के रूप में स्नेह प्रकट करने की कृपा करें |
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